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सोने की चिड़िया - प्रभात प्रणीत
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सोने की चिड़िया

लेख :

हमारे देश को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था, क्या सच में ऐसा था? क्या सच में कभी यह देश इतना विकसित और समृद्ध था कि पूरी दुनिया हम पर रश्क करती थी? इतिहासकार यदि ऐसा मानते हैं तो ऐसा होगा ही. मैं इतिहासकारों के ज्ञान पर संदेह नहीं कर रहा पर आज इस देश की स्थिति को देखकर सहसा किसी को भी इस पर विश्वास करने में एकबारगी दिक्कत तो होगी ही. सोने की चिड़िया कहलाने वाला देश जिसे इतिहासकारों के मुताबिक तमाम विदेशी हमलों व भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से कंगाल हो जाना पड़ा, अंग्रेजों से आजादी के 70 साल बाद भी आज विकासशील देश के रूप में ही संघर्ष कर रहा है जबकि लगभग हमारे साथ ही आजादी पाये कई देश आज विकसित राष्ट्र के रूप में पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित हैं. इस परिस्थिति के कारण निर्धारण का सबसे आसान और प्रचलित तरीका है कि हम इसके लिए इस देश की राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिज्ञों को दोषी ठहरा दें. आमतौर पर लोग यही करते हैं. राजनीतिक समुदाय को हर नाकामी के लिए दोषी ठहरा कर इस देश का आम नागरिक अपनी कमियों को बड़ी आसानी से छुपा लेता है और राष्ट्र निर्माण की अपनी तमाम जिम्मेवारियों से भी खुद को मुक्त कर लेता है.

इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी राष्ट्र के भविष्य निर्माण में उस देश की राजनीतिक व्यवस्था का बहुत बड़ा योगदान होता है और यह उसे काफी हद तक प्रभावित भी करती है लेकिन क्या यह सिर्फ इतने तक सीमित है? क्या रष्ट्र निर्माण में व्यक्तिगत आदर्शों, सामाजिक व्यवस्था व स्वभाव का कोई योगदान नहीं? राजनीतिक व्यवस्था और इसके तमाम अंग राष्ट्र निर्माण में एक प्रभावी तत्व मात्र हैं और वे इस तरह के इकलौते प्रभावी तत्व नहीं हैं बल्कि इनके अलावा भी बहुत सारे प्रभावी तत्व हैं जिसका आधार उस देश का व्यक्तिगत व सामाजिक स्वाभाव है? जैसे भ्रष्टाचार सिर्फ राजनीतिज्ञों तक सीमित नहीं है, कार्यपालिका, न्यायपालिका क्या इससे मुक्त हैं? सच्चाई तो यही है कि हमाम में सभी नंगे हैं.

कोई भी देश सोने की चिड़िया कभी नही बन सकता जब तक कि इस हेतु प्रयास सामूहिक न हो और योगदान से लाभ तक में प्रत्येक व्यक्ति की बराबर की हिस्सेदारी न हो. और कम से कम आज की तारीख में इस देश में तो यह स्थिति तो नहीं ही है. चूंकि वैचारिक स्तर पर नैतिक शुद्धता में बराबरी नहीं है इसीलिए योगदान में बराबर की हिस्सेदारी नहीं है. और चूँकि सुविधा, प्रगति में भी बराबरी नहीं है इसीलिए लाभ में भी बराबर की हिस्सेदारी नहीं है. तो यदि हम इस देश के भविष्य को बदलना चाहते हैं तो फिर सबसे पहले हमे इस स्थिति को बदलना होगा. सामाजिक, आर्थिक असामानता के रहते कोई भी देश न तो वास्तविक रूप से समृद्ध ही हो सकता है और न ही प्रतिष्ठित ही हो सकता है.

इस देश में अब तक लागू तमाम गरीबी उन्मूलन की योजनाओं और राष्ट्र निर्माण के सतही प्रयासों की एक बानगी इस बात से दिखता है कि 1947-48 में नेहरु के 171 करोड़ के बजट में भी खाना–पानी–घर को प्राथमिकता दी गई थी और 2016-17 के बजट में भी आम लोगों की न्यूनतम जरूरत पर ही बजट केन्द्रित है.पर इसका वास्तविक परिणाम इस रूप में है कि आज इस देश के 80 करोड़ लोग दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. तमाम पंचवर्षीय योजनाओं और गरीबी हटाओ अभियान का परिणाम यह है कि साल 2000 में इस देश के एक फीसदी अमीर लोगों के पास इस देश की 36.5 प्रतिशत संपत्ति थी जो आज बढकर करीब 53 फीसदी हो चुकी है. तमाम तरह की योजनायें तो गरीबों के नाम पर गरीबी मिटाने के लिए बन रही हैं फिर ऐसा क्यों हो रहा है?और इस तरह की गैर बराबरी के रहते कोई देश भला कैसे समृद्ध हो सकता है?

भारत एक कृषि प्रधान देश है और इस देश की बहुसंख्यक आबादी गांवों में ही बसती है जिनके जीवन यापन का प्रत्यक्ष या परोक्ष साधन खेती ही है. इस दृष्टिकोण से इस देश की वास्तविक स्थिति का अंदाजा किसानों की दिशा और दशा से निश्चित रूप से लगाया जा सकता है. एक तरह से इस देश के किसानों की सेहत इस देश की सेहत की वास्तविक परिचायक है. और आजादी के बाद से आज तक की तमाम कृषि केन्द्रित योजनाओं, किसानों के स्थिति में गुणात्मक सुधार के लिए लाए गए तमाम प्रस्तावों का परिणाम यह है कि पिछले 20 साल में साढ़े तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली जिनमें से अधिकतर बैंक या साहूकारों का कर्ज न चुका पाने की वजह से बुरी तरह टूट चुके थे. और यह किसी एक साल की बात नहीं है. यह आजादी के बाद से आज तक लगातार हो रहा है, हर साल हो रहा है, हर घंटे कोई न कोई किसान इसी तरह दम तोड़ रहा है. अपनी तथाकथित तेज विकास दर, आर्थिक उन्नति, प्रभाव के आधार पर सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का दावा करने वाला यह विकासशील देश खरबों रूपये खर्च कर के भी अपने किसानों के लिए मौसम पर निर्भर हुए बगैर समुचित सिंचाई, आर्थिक सहायता, आधुनिक कृषि हेतु प्रशिक्षण व सुविधा, कृषि उत्पादों का भंडारण और बिचौलिया मुक्त उचित मूल्य पर विक्रय प्रणाली तक का व्यवस्था नहीं कर पाया तो स्वाभाविक है कि इस कृषि प्रधान देश के किसान आत्महत्या करेंगे. आज भी मात्र 23 फीसदी किसानों के पास सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है. सोचने वाली बात यह है कि जब किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है फिर तेज विकास दर, जीडीपी का भला क्या मतलब है? जीडीपी भला किसके विकास की गाथा सुना रहा है, किसानों की नहीं, मजदूरों की नहीं, गरीबों की नहीं तो फिर किसकी? इस देश की 36 करोड़ आबादी बीपीएल की परिधि में हैं. एक तरफ इस देश की प्रति व्यक्ति आय सलाना मात्र 93293 रूपये है तो दूसरी तरफ रिलायंस इंडस्ट्री, टीसीएस, अडानी ग्रुप और सन फार्मा कुल चार कम्पनियों के पास 12 लाख करोड़ से ज्यादा का धन है और इस देश के रईसों के 1500 बिलियन डॉलर स्विस बैंक में सुरक्षित पड़े हैं. तो क्या इस देश की विकास गाथा सिर्फ चंद पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और चंद शहरी उच्च मध्यवर्गीय लोगों के बीच ही सीमिति और सिर्फ उन्ही के लिए संरक्षित है? क्या इस देश की तमाम नीतियाँ इसी हिसाब से बनाई जाती हैं कि सिर्फ इन्ही चंद लोगों का भरपूर पोषण, संरक्षण और उन्नति हो?

इस स्थिति को और स्पष्ट रूप से समझने के लिए कुछ तथ्यों पर विचार करने की आवश्यकता है. आज इस देश के किसानों पर कुल कर्ज 12 लाख करोड़ रुपये है जिनमे से लगभग 9 लाख करोड़ रूपये बैंकों के है और बाकि अन्य स्रोतों से लिए गये कर्ज हैं. हालाँकि बैकों के किसानों के नाम पर दिए गए कर्ज का 55 फीसदी कृषि सम्बन्धी व्यवसाय हेतु दिए गये हैं.. दूसरी तरफ इस देश के उद्योगपतियों का एनपीए साढ़े आठ लाख करोड़ है जिनमे से मात्र 661 लोगों का एनपीए ही 4 लाख करोड़ रूपये से ज्यादा है. इसके अलावा इन पूंजीपतियों के यहाँ इनकम टैक्स बकाया 9 लाख करोड़ रूपये तक हो चूका है और ताज्जुब की बात यह है कि लगभग 9 लाख करोड़ रूपये ही इन उद्योगपतियों को रियायत(सब्सिडी) दी गई है. उद्योगपति उद्योग में अपेक्षाकृत कम विकास के आधार पर (नकारात्मक विकास) रियायत या एनपीए की मांग करती है जिसे तमाम सरकारों द्वारा आसानी से स्वीकार भी कर लिया जाता हैI पिछले वित्तीय वर्ष में ही उद्योगपतियों के लगभग डेढ़ लाख करोड़ का कर्ज माफ़ कर दिया गया. यही उदारता इस कृषि प्रधान देश के किसानों के प्रति क्यों नहीं दिखाई जाती? कर्ज माफ़ी या मदद के लिए इसी तरह के तर्क किसानों के लिए क्यों नहीं गढ़े जाते? किसानों की यह निरंतर उपेक्षा क्यों? और क्या यही उपेक्षा किसानों की आत्महत्या की प्रमुख वजह नहीं है? और जब तक इस देश के किसान इसी तरह मरते रहेंगे क्या तब तक हमें अपनी तथाकथित विकास गाथा पर गर्व करना चाहिए?

कृषि प्रधान देश के प्रमुख स्तम्भ किसान का मुद्दा जब तक हमारे विमर्श का केंद्र नहीं बनेगा तब तक यह स्थिति बदलने वाली भी नहीं है.इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्र निर्माण में सबका अपना–अपना योगदान है, इस लिहाज से उद्योगपति भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, मैं यहाँ उनकी उपेक्षा की बात कर भी नहीं रहा. दरअसल आवश्यकता हमारी सोच व नीतियों को किसानपरक बनाने की है, नीति–निर्धारक, मध्यम वर्ग, मीडिया व युवाओं के लिए कृषि और किसान दोनों ही आज की तारीख में प्राथमिकता वाला क्षेत्र नहीं है, किसानों के सरोकार से इनका प्रमुख वास्ता नहीं रह गया है. इसे अविलम्ब बदलने की आवश्यकता है.

दरअसल हमारी समस्याओं के पीछे कहीं न कहीं नीति–निर्धारक, मध्यम वर्ग, मीडिया, युवाओं की नीयत की कमी ही है जो हमें आज भी इस देश को विकसित राष्ट्र बनाने नहीं दे रही है. संकुचित सोच व तमाम पूर्वाग्रह, ताकतवर संस्थाओं की उस साजिश का पोषक बन जाती है जो हमें हमारे जीवन से जुड़े वास्तविक जरूरत के मुद्दों से लगातार भटका कर रखना चाहती है. क्षेत्रवाद, भाषाई अस्मिता, जातीय विद्वेष, हिन्दू–मुस्लिम के बीच भटक रहे युवाओं के लिए दिन–ब–दिन घट रही नौकरी की सम्भावना मुख्य मुद्दा क्यों नहीं है? उन्हें धर्म परिवर्तन की एक घटना से जितना दर्द होता है उतना ही दर्द इस बात से क्यों नहीं होता कि साल 2014 में मिली 2 लाख केंद्र सरकार की नौकरियों की तुलना में 2016 में मात्र 18 हजार युवाओं को ही सरकारी नौकरी मिली. युवाओं को यह क्यों नहीं दिखता कि इस देश को खोखला कर रहे भ्रष्टाचार के अभिशाप से मुक्ति के लिए काफी संघर्ष से प्राप्त आरटीआई एवं व्हिसल ब्लोअर कानून को किस तरह पंगु बनाने की साजिश हो रही हैI.

साल 2017 के बजट सत्र में जो संशोधन प्रस्तावित किया गया उसके अनुसार अब आरटीआई में दिया गया आवेदन वापस लिया जा सकता है एवं आवेदक की मृत्यु के पश्चात् उसके द्वारा उठाये गए प्रश्न का जबाब देना आवश्यक नहीं रह जाएगा, अर्थात अब आरटीआई के तहत प्रश्न पूछने वालों को धमकाना, उन्हें दबाब में लेना आसान होगा और यह संशोधन किस तरह से आरटीआई को भ्रष्टाचार विरोधी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की मुहीम को नष्ट कर सकता है इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन संसाधनों के बगैर मौजूदा मजबूत कानून के रहते ही साल 2005 से अब तक 65 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है. इसी तरह व्हिसल ब्लोअर कानून में संशोधन प्रस्तावित है कि आरटीआई के तहत जो प्रश्न न पूछा जा सकता हो, उसका खुलासा करने वालों पर अब करवाई की जा सके. इसके अलावा भ्रष्टाचार निरोधक कानून में भी संशोधन प्रस्तावित है जिसके तहत अब कोई संस्था भ्रष्टाचार सम्बन्धी जाँच तब तक नहीं कर सकती जब तक सरकार इसकी अनुमति न दे दे. मतलब भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाने का वादा कर सत्ता पाने वाली विभिन्न सरकारें भष्टाचार निरोधी कानूनों को और व्यापक व धार–धार बनाने के बजाये चुपके से लगातार ऐसे कानून बना रही है जिससे कि ये कानून दन्त विहीन, शक्तिहीन हो कर जनता को भरमाने के लिए दिखावा मात्र बन कर रह जाएँ. इस तरह की खतरनाक साजिशों से फेसबुक, ट्विटर चलाते युवा वर्ग को कोई फर्क नहीं पड़ रहा या फिर उन्हें फर्क न पड़े इसीलिए उन्हें क्षेत्रवाद, भाषायी अस्मिता, जातिय विद्वेष, स्वपरिभाषित संकुचित हिंदुत्व जैसे मुद्दों में उलझाकर रखने का षड्यंत्र रचा जा रहा है और इस षड्यंत्र को उजागर करने की जिसकी सबसे ज्यादा जिम्मेवारी है, वह मीडिया निजी स्वार्थों, महत्वकांक्षा की वजह से अपना मूल धर्म भूलकर, नैतिकता की तिलांजली दे कर सत्ता–समर्थक चीयरलीडर्स की तरह व्यवहार करती रही है.

जनता की भागीदारी, जनता के कल्याण और वास्तविक विकास के लिए लोकतंत्र से बेहतर कोई भी शासन प्रणाली विश्व समुदाय के समक्ष आज उपलब्ध नहीं है और लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत ही इस समय ज्यादातर देश विकसित हो रहे हैं तो फिर हमारी अपेक्षाकृत कम सफलता के लिए दोषी कौन है? किसी भी व्यवस्था की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसे धरातल पर कितने शुद्ध और सफल तरीके से अपनाया जा सका. इस दृष्टिकोण से हम अन्य विकसित देशों से काफी पीछे हैं और असफल हैं. हम सबसे बड़े लोकतंत्र जरुर हैं पर सबसे बेहतर तरीके से लोकतान्त्रिक व्यवस्था को लागू नहीं कर पाए हैं. लोकतंत्र की सफलता के लिए सबसे प्रथम अनिवार्य शर्त यह है कि चुनाव प्रक्रिया आदर्श तरीके से सम्पन्न हो अर्थात चुनाव निष्पक्ष, भेदभाव रहित, दबाब रहित, किसी भी प्रकार से आम जनता को बलात प्रभावित करने वाले तत्वों से मुक्त हो. प्रारम्भ से ही चुनाव सुधार की सम्भावना बनी हुई है एवं अब तक हुए काफी सारे सुधारों के बावजूद अपने देश में व्यापक चुनाव सुधार की आवश्यकता महसूस की जाती रही है. निष्पक्ष चुनाव के लिए अनैतिक धन के प्रयोग को समाप्त करना अति आवश्यक है, जब तक चुनाव में इस तरह के धन का प्रयोग होते रहेगा तब तक लोकतंत्र अपने सच्चे अर्थो में सफल नहीं हो सकता, क्योंकि चुनाव में जिनका भी अनैतिक, भ्रष्ट धन लगेगा, वे प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से अनैतिक व भ्रष्ट तरीके अपना कर लोकतान्त्रिक व्यवस्था की मूल भावना के कीमत पर ही अपने धन का लाभ लेंगे. इसीलिए यदि हम वास्तविक लोकतंत्र चाहते हैं तो इस हेतु अनैतिक धन प्रवाह को किसी भी कीमत पर रोकना होगा, इसे आम जनता के विमर्श का मुख्य विषय बनाना होगा क्योंकि उसके बगैर सत्ताधारी दल या फिर अन्य दल खुद से ही इस हेतु गम्भीर पहल नहीं करेंगे.

2014 के चुनाव में जिस तरह खुलेआम अभूतपूर्व मात्रा में धन का प्रयोग हुआ वह किसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए गम्भीर चिंता का विषय है क्योंकि यह सभी जानते हैं कि इस धन का अधिकांश हिस्सा उस दल के पूंजीपति समर्थकों ने लगाया है जो इसे सरकार को अपने ढंग से प्रभावित कर, अपने हित में नीतिगत फैसला करवा कर वसूलेंगे और इन आर्थिक परोक्ष भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में आम जनता को कभी पता भी नहीं चल पायेगा क्योंकि आम जनता तो सीधे तौर पर लिए गये घूस को ही सामान्यतः भ्रष्टाचार मानती है और समझती है.

2017 के बजट सत्र में वित्त–विधेयक के बहस के दौरान देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भाषण के प्रारम्भ में चुनाव सुधार की आवश्यकता पर काफी जोर दिया था लेकिन इसी सरकार द्वारा जो प्रावधान प्रस्तावित किया गया है वह तो वित्त मंत्री के भाषण के ठीक उलट है. अब जो कानून संशोधन किया जा रहा है उसके अनुसार तो उद्योगपतियों और पूंजीपतियों का हस्तक्षेप सत्ता के गलियारों में साफ़ तौर पर बढ़ जायेगा और तमाम अनैतिक धन का प्रवाह भी बढ़ जाएगा जो सिर्फ और सिर्फ भष्टाचार को ही बढ़ावा देगा. पहले के कानून के अनुसार कोई भी कम्पनी अपने तीन साल के मुनाफे का मात्र साढ़े सात फीसदी ही किसी राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकती थी एवं उसे यह राशि अपने बही खाता में स्पष्ट करना पड़ता था. विभिन्न देशों में वहाँ के कानून के अनुसार यह सीमा कम या कुछ ज्यादा है. भारत में भी इस सीमा को और घटाने की मांग समय–समय पर होती रही है ताकि पूंजीपति अपने स्वार्थों के लिए सत्ताधारी दल हेतु धन का प्रयोग कर आम जनता के हितों के साथ खिलवाड़ न कर पाए. पर जो संशोधन किया जा रहा है उसके अनुसार अब कोई भी कम्पनी अपने कुल लाभ का कोई भी कितना भी हिस्सा मनमाने तरीके से किसी भी राजनीतिक दल को दे सकती है और उन्हें इसे अपने बुक ऑफ अकाउंट (बही–खाता) में दिखाने की भी आवश्यकता नहीं होगी. इतना ही नहीं उनके द्वारा दी गई इस मनमानी राशि पर उन्हें टैक्स छूट का भी लाभ मिलेगा. अर्थात अब औद्योगिक घराने इस कानून की आड़ में न सिर्फ राजनीतिक दल व सरकारों को मनमाने तरीके से निर्देशित करने में सक्षम होंगे बल्कि चूंकि अब उन्हें इस राशि को अपने बही खाते में दिखाने की आवश्यकता भी नहीं है अतः इस कानून की आड़ में वे बड़े पैमाने पर काले धन का प्रयोग कर पाएंगे.

चूंकि यह राजनीतिक जमात के व्यक्तिगत हित का विषय है इसलिए किसी भी राजनीतिक दल ने स्वाभाविक रूप से इसका ख़ास विरोध नहीं किया है. इस तरह पूरी लोकतान्त्रिक प्रणाली को भयानक रूप से दूषित करने वाला कानून सरकार द्वारा बनाया जा रहा है और इसकी कहीं कोई विशेष चर्चा नहीं है. यह बात साबित करती है कि आज की पीढ़ी, विशेषकर युवा पीढ़ी, बुद्धिजीवी और मीडिया से जुड़े लोग किस हद तक आम हित के मूल सरोकार वाले विषयों से विमुख हो चुके हैं. और जब तक ये लोग इसी तरह गैर जरूरी मुद्दों में उलझकर या उलझाकर खुद को और समाज को रखेंगे तब तक विकास की गंगा वास्तविक रूप से आम जन के लिए सुलभ नहीं हो पायेगा.

(सांकेतिक छवि: सत्याग्रह )

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