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कश्मीरियत को समझने के लिए - प्रभात प्रणीत
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कश्मीरियत को समझने के लिए

पुस्तक-समीक्षा :

कश्मीर, जिसका नाम सुनकर सिर्फ जन्नत जैसी खुबसूरत वादियों, पर्वतों, झीलों, पेड़ों का खयाल आना चाहिए था, विडम्बना है कि पूरी दुनिया आज इसे एक विवादित भू-भाग के रूप में जानती है I जो जगह प्राकृतिक संपदा और गिलगिट-बाल्टिस्तान में मौजूद अकूत खनिज पदार्थों यूरेनियम, माणिक, पन्ना, पुखराज, स्फटिक, लौह अयस्क, संगमरमर, सल्फर, सोने की खानों की वजह से दुनिया के समृद्ध इलाकों में से एक होती वह और वहां के लोग आज गुरबत के अंधेरे में डूबे हुए हैं I जहां की जिंदगी ख़ुशियों से लबरेज़ होती वह अश्कों की बानगी भर है I इन हालात के गुनाहगार कौन हैं, राजनीति, धर्म या सदियों से कश्मीर को ललचाई नजरों से देखने वाली असंख्य आंखें ?

अफ़सोस की बात यह है कि आज हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच का मोहरा भर बने इस इलाके की असलियत इन दो मुल्कों के लोगों को भी ठीक से पता नहीं है और न ही इस असलियत से रूबरू होने में कोई ख़ास दिलचस्पी ही है I सबके पास अपनी एक कहानी है, अपना एक पूर्वाग्रह है और उससे बना चश्मा है जिससे कश्मीर किसी को हरा दिखता है तो किसी को भगवा दिखता है तो किसी को लाल दिखता है I कश्मीर पर लिखी गई अशोक कुमार पांडेय जी की यह मुकम्मल किताब वाकई हमारे सामने उस कश्मीर की असल तस्वीर दिखाती है जिसे छुपाये रखने की साज़िशें पुरानी हैं और वजहें भी तमाम हैं I

इस किताब की विशेषता पुराण काल से अभी तक के कश्मीर का बताया गया इतिहास भर नहीं है बल्कि लेखक का वह प्रयास भी है जिसमें वे लगातार कश्मीरियत को पढ़ने, परखने और पाठक के सामने लाने की कोशिश करते दिखते हैं I आज कश्मीर के लोगों को किसी भी कट्टरपंथी नजरिये से देखकर उनके वास्तविक सोच, प्रवृति, आकांक्षा व जीवन का आकलन नहीं किया जा सकता, दरअसल कश्मीर को ऐसे नजरियों से लगातार देखा जाना ही उसका असली दुर्भाग्य है I

यह बात सच है कि हिंदुस्तान में इस्लाम के आगमन का प्रभाव देश के बाकी हिस्सों की तरह कश्मीर पर भी पड़ा I महमूद गजनवी, तैमूर से लेकर मुगल शासकों तक, सभी के हस्तक्षेप ने देश के बाकी हिस्सों की तरह कश्मीर की आबादी और सामाजिक व्यवस्था का चरित्र बदला I लेकिन हिंदू समाज के बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक में तब्दील होने की एकमात्र वजह सिर्फ जबरन धर्म परिवर्तन नहीं था जैसा कि कुछ लोग साबित करने की कोशिश करते रहते हैं I हिंदू धर्म में मौजूद घोर ब्राह्मणवाद, चंद जातियों द्वारा बहुसंख्यक जातियों व आबादी का निरंतर अमानवीय शोषण जैसे कारकों ने भी इस्लाम के विस्तार में महती भूमिका निभाई I इसका प्रमाण ललद्यद जैसी योगिनी के प्रति आज भी सभी धर्मों के लोगों के मन में बचा सम्मान है I

शैव योगिनी लल ने ब्राह्मणवादी कुरीतियों, जाति प्रथा, आडम्बर व मूर्तिपूजा का विरोध कर शोषित हिंदुओं के मन में जिस तरह अपनी जगह बनाई इसने वह जमीन तैयार की जिस पर फ़ारसी संत सैयद अली हमदानी के साथ आये सूफी आन्दोलन और फिर इस्लामीकरण की राह आसान हो गयी I हालांकि इसके साथ ही तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितयों व सत्ता संघर्ष ने भी कश्मीर को इस्लामिक राज्य में बदलने में बड़ी भूमिका निभाई I

लेकिन धार्मिक रूप से हिंदू से मुस्लिम आबादी में बदले इस नये समाज ने भी अपने अंदर कश्मीरियत को ज़िंदा रखा I इस कश्मीरियत को समझने के लिए यह जेहन में रखना जरूरी है कि इसे किसी एक धर्म या मान्यता ने नहीं बल्कि हिंदू धर्म, बौद्ध मान्यता, इस्लाम, सूफीवाद और ऋषि परम्परा ने मिलकर गढ़ा है I इसने उस साझा संस्कृति का निर्माण किया जिसका आधार सहिष्णुता, परस्पर सम्मान व सहभागिता है I कश्मीर में अनेक ऐसे शासक हुए जिनके कार्यकलापों में इस कश्मीरियत की साफ़ झलक थी I

पांच दशक तक शासन करने वाले कश्मीर के महान शासक जैन-उल-आब्दीन इसका बेहतरीन उदाहरण है जिसने धार्मिक भेदभाव का खात्मा करने, सौहार्द बढ़ाने के लिये कश्मीर छोड़कर दूसरी जगह जा बसे हिंदुओं को वापस बुलाने, भय से हिंदू से मुसलमान बने हिंदुओं के अपने धर्म में लौटने की सहूलियत, गो हत्या पर रोक, टूटे मन्दिरों का पुनर्निर्माण व नये मन्दिरों का निर्माण, हिंदुओं के लिए पाठशालाओं का निर्माण व संस्कृत शिक्षा के लिए बनारस, दकन भेजने के लिए वजीफा, उच्च पदों पर हिंदुओं और बौद्धों की नियुक्ति जैसे बड़े कदम उठाये I

यह कश्मीरियत ही थी जिसके कारण बंटवारे के वक्त जब पड़ोस के पंजाब और यहां तक कि जम्मू से भी साम्प्रदायिक हत्याओं की खबर आ रही थी पूरी कश्मीर घाटी में न कोई साम्प्रदायिक तनाव की घटना हुई न ही किसी हिंदू या सिख को घाटी छोड़नी पड़ी और जिस वजह से महात्मा गांधी तब की अपनी प्रार्थना सभाओं में लगातार कश्मीर को एक उम्मीद की किरण बताते रहे I

यह कश्मीरियत ही थी कि पाकिस्तान द्वारा कराये गये कबायलियों के हमले को विफल करने के लिये संघर्ष करते हुए 19 वर्षीय नौजवान मीर मकबूल शेरवानी जब शहीद हुआ तो उसने कबायलियों द्वारा चौदह गोलियां खाने के पहले पुरजोर आवाज में ‘हिंदू-मुस्लिम इत्तिहाद जिंदाबाद’ का नारा लगाया I इसी कश्मीरियत से ओतप्रोत मास्टर अब्दुल अजीज ने गैर मुस्लिम औरतों को बलात्कार से बचाने के लिये कुरान की कसम खायी जिसे अंततः कबायलियों ने मार दिया I

राजनीतिक उद्देश्यों से पैदा किये गये साम्प्रदायिकता के जहर ने इस कश्मीरियत को जरुर बार-बार ठेस पहुंचाई है और इसे शर्मिंदा किया है I 90 के दशक में हिंदुओं के साथ हुआ अत्याचार और उनका जबरन पलायन इसका एक उदाहरण है हालांकि इस संदर्भ में तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन की भूमिका भी काफी संदिग्ध मानी जाती है I पंडित हिंदू वेलफेयर सोसायटी के प्रमुख मोतीलाल भट्ट इसके एक और पक्ष की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि जिन हिंदू पंडितों ने पलायन नहीं किया उन्हें बाहर चले गए पंडित गद्दार की तरह देखते हैं और उनकी बेटियों से शादी नहीं करते I

लेकिन हिंदुओं के साथ हुए अत्याचार की चर्चा करते वक्त सामाजिक तानाबाना नष्ट करने वाले कई महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि को नजरअंदाज कर दिया जाता है I 75 लाख नानकशाही रुपयों के बल पर कश्मीर को अंग्रेजों से खरीद कर लगभग एक सदी तक शासन करने वाले हिंदू डोगरा काल के दौरान हुए कश्मीर की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के शोषण, उपेक्षा की आज कहीं चर्चा नहीं होती I इस दौरान राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक रूप से हाशिये पर धकेल दिये गये बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के अंदर निरंतर पनप रही पीड़ा ने भी माहौल को काफी हद तक तनावपूर्ण बना दिया था I

कैम्पबेल के अनुसार अगस्त 47 से अक्टूबर 47 के बीच लगभग पांच लाख मुसलमान जम्मू से निष्कासित कर दिए गए जिनमें से दो लाख ‘गायब’ हो गए I वेद भसीन इसे जम्मू का जनांकिक चरित्र बदलने की साजिश का हिस्सा मानते हैं I इस संदर्भ में वे कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमन्त्री मेहर चंद महाजन के उस वक्तव्य की भी याद दिलाते हैं जिसमें मुसलमानों की लाशों की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा था कि “‘जनसंख्या का अनुपात’ बदला भी जा सकता है” I ये तथ्य आज के कश्मीर विमर्श से पूरी तरह गायब है I

दरअसल कश्मीर की इस अमानवीय त्रासदी में हिंदू या मुसलमान कोई निर्दोष नहीं है I साम्प्रदायिक सफाए में दोनों दोषी हैं I सभी पक्ष अपनी सुविधा के अनुसार दूसरे को अपराधी और खुद को पीड़ित बताते हैं I

लेखक ने इस किताब में कश्मीर को लेकर आज हमारे विमर्श का केंद्र बन बैठे तीन प्रमुख मुद्दों को भी साफ़ करने की कोशिश की है-

  1. धारा 370 को विशेष राज्य के दर्जे से जोड़ा जाता है जबकि यह बिल्कुल गलत है I विशेष राज्य के दर्जा के लिए बनाए गए आधार- पहाड़ी और दुर्गम इलाके, कम जनसंख्या घनत्व या आदिवासी जनसंख्या का बाहुल्य, रणनीतिक महत्व वाले पड़ोसी देशों के सीमावर्ती इलाकें, आर्थिक और आधारभूत ढांचे का पिछड़ापन और राज्यों की खराब आर्थिक स्थिति के तहत जिस तरह असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, उत्तराखंड, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम को यह दर्जा दिया गया, उन्हीं मापदंडों के आधार पर स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान से लंबी सीमा साझा करने वाला पहाड़ी क्षेत्र कश्मीर भी इसका हकदार है I
  2. कश्मीर से जुड़ा दूसरा प्रमुख मुद्दा 35 ए से सम्बन्धित है जिसमें दूसरे राज्यों के नागरिकों के कश्मीर में जमीन खरीदने पर लगाया गया रोक है I लेकिन इस तरह का रोक तो हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में भी लागु है जिस पर कभी चर्चा नहीं होती I यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि कश्मीर में इस तरह की रोक कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के द्वारा लागू की गई नागरिकता कानून के तहत 1927 में लगाई गई थी और यह तभी से जारी है I हां, धारा 370 ने डोगरा काल में बने इस कानून को केंद्र सरकार द्वारा बदलने की संभावना को अवश्य खत्म किया है I
  3. कश्मीर की महिलाओं के बाहर किसी राज्य के पुरुष से विवाह करने पर अचल सम्पत्ति खरीदने और नौकरी के अधिकार छीन जाने के जिस कानून को भी आज इतना बड़ा मुद्दा बनाया जाता है वह भी हिंदू महाराजा हरि सिंह के द्वारा बनाये 1927 के कानून के अनुरूप ही था I हालांकि 2002 में जम्मू और कश्मीर के हाईकोर्ट ने इसे निष्प्रभावी बना दिया था I

इतिहास की किताब कई बार मानवीय संवेदनाओं के अध्ययन के बगैर शुष्क सी प्रतीत होती है लेकिन ‘कश्मीरनामा’ के साथ यह बात नहीं है I लेखक ने जीवन के उन पहलुओं को छूने की संजीदगी से कोशिश की है जिनका अस्तित्व भी सीमाओं के अधीन ही होत्ता है, रोज बन रहे, बनाये जा रहे घेरों, दीवारों के भीतर मौजूद रहता है और इस लिहाज से यह किताब खास है I इस किताब में उनका गहन रिसर्च व अध्ययन, उनके निष्पक्ष, पूर्वाग्रह रहित विवेचनाओं की वजह से ज्यादा प्रभावी बन गया है और आज की पीढ़ी हेतु माकूल भी है I

आज टीवी में, अख़बारों में पत्रकारों, राजनेताओं और सोशल मीडिया पर महारथियों को कश्मीर पर बड़ी-बड़ी बातें करते देख मुझे व्यक्तिगत रूप से महसूस होता है कि उन्हें अपना कुछ कीमती वक्त निकालकर यह किताब पढ़ लेनी चाहिए, संभव है इससे उनके बहुत सारे भ्रम दूर हो जाएं I लेकिन यदि यह भ्रम, पूर्वाग्रह कृत्रिम हो और इस भ्रम को जीने में ही अपना हित दिख रहा हो फिर तो कोई कुछ नहीं कर सकता है I

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