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कश्मीर और कश्मीरी पण्डित : सच और झूठ के बीच - प्रभात प्रणीत
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कश्मीर और कश्मीरी पण्डित : सच और झूठ के बीच

पुस्तक-समीक्षा :

कश्मीर अब इस देश के अन्य हिस्सों की तरह एक जगह भर नहीं, इतिहास की किताब का उलझा पन्ना भर नहीं बल्कि अब यह इस देश मे हो रही तमाम फासिस्ट गुनाहों की ढाल और भविष्य की संभावनाओं का आधार भी है I सोशल मीडिया या सार्वजनिक बहस में हर जायज, नाजायज तर्क, कुतर्क को जीतने के लिए अब कश्मीर का सहारा लिया जाता है I यह जगह कभी धरती के स्वर्ग के रूप में जेहन में रहती होगी लेकिन अब यह आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला सबसे बड़ा हथियार है I अब इस देश में कश्मीर और कश्मीरी पंडित की बात किये बगैर आप मानवाधिकार, आजादी, रोटी, कपड़ा, शिक्षा, रोजगार, मकान जैसे मूलभूत मुद्दों पर भी बात नहीं कर सकते जो एक नागरिक का मूल अधिकार है और लोककल्याणकारी राज्य के लोकतांत्रिक सरकार की मूल जिम्मेदारी भी है I सूचना क्रांति के इस दौर की सबसे बड़ी विशेषता यह होनी चाहिए थी कि हमारे सामने तमाम तथ्य सहजता से उपलब्ध होते और यह पीढ़ी सच के सबसे ज्यादा करीब होती लेकिन इस दौर की विडंबना यह है कि हमारे दिमाग को गलत सूचनाओं को द्वारा अभी ही सबसे ज्यादा दूषित कर दिया गया है, सच से दूर कर दिया गया है I इसी क्रम में कश्मीर और कश्मीरी पंडित से जुड़े असंख्य प्रोपगंडा ने हमारी नैतिकता, संवेदनशीलता, समझ पर ही प्रश्न खड़े कर दिए हैं और यह प्रश्न दिन-ब-दिन उलझता ही जा रहा है I सच और झूठ इस कदर एक दूसरे में समाहित हो गये हैं कि कश्मीर से जुड़े जायज प्रश्न अनुत्तरित रह कर हमें रोज पहले से ज्यादा दिग्भ्रमित कर रहे हैं I इस कठिन दौर में अशोक कुमार पांडेय सर ने न सिर्फ इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की ईमानदार कोशिश की है बल्कि उपरोक्त उलझन को सुलझाने का प्रयास भी किया है I इनकी पुस्तक “कश्मीरनामा” एवं अब आई “कश्मीर और कश्मीरी पंडित” इनके इन्हीं प्रयासों की बानगी है I

लेखक ने इस किताब में बार-बार कश्मीर से जुड़े तमाम प्रश्नों का उत्तर ढूंढते वक्त इसके सरलीकरण से बचने की उचित सलाह दी है बावजूद इसके मैं यहां एक सरलीकरण करने की जोखिम उठा रहा हूँ I इस देश की प्रकृति में जो सबसे बड़ी कमी है वह है वर्गीय शोषण की घातक प्रवृत्ति I इस एक प्रवृत्ति ने बार-बार इस देश को नफरत, विवाद और अवनति के दलदल में धकेला है I यह बात सच है कि हम इस देश के वसुधैव कुटुंबकम, सर्वधर्म समभाव जैसे महान मूल्यों पर गौरवान्वित होते हैं लेकिन क्या हमारा देश कभी भी वर्गीय शोषण जैसे अपराध से मुक्त रहा है? इस देश में हजारों वर्षों तक एकछत्र राज करने वाले हिंदू धर्म की समूची सामाजिक संरचना ही एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण पर टिकी हुई है I मनुस्मृति मूल नहीं है वह तो बस एक दस्तावेजी परिलक्षण है I प्रारंभ से ही हमारी व्यवस्था एक बड़े बहुसंख्यक वर्ग के शोषण के बल पर एक छोटे वर्ग को उन्नति, सत्ता प्रदान करने पर आधारित है और इसमें कोई भी खलल शोषक वर्ग को उद्वेलित कर देती है, आक्रामक बना देती है लेकिन चूंकि उनके पास संख्या बल की कमी है इसलिए वे अपने द्वारा शोषित वर्ग की ताकत का इस्तेमाल करने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं, उसका चोला ओढ़ लेते हैं I कश्मीर की समस्या के मूल में भी यह प्रवृत्ति एक हद तक जिम्मेवार है I जब जिस वर्ग या मजहब के लोग इस हेतु सक्षम रहे हैं उन्होंने शोषण की सारी सीमा लांघ दी है, धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की यही कलंकित त्रासदी है I वर्तमान और भविष्य तय करने में सक्षम लोगों में समय-समय पर कश्मीर के रूह के करीब की कश्मीरियत को जीने वाले, कायम रखने वाले लोग भी हुए लेकिन इन सक्षम लोगों में इस कश्मीरियत को नष्ट करने की चाह रखने वालों की संख्या कहीं ज्यादा रही है I संभव है मेरे इस सरलीकृत आकलन के पीछे एक हद तक आज की परिस्थिति जिम्मेवार हो लेकिन कश्मीर की त्रासद कहानी बार-बार मुझे इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए प्रेरित करती रही है I

यदि आज हर बात में इतिहास का ओट लिया जा रहा है तो बात शुरुआती दौर से ही होनी चाहिए I साफ शब्दों में कहूं तो एक वर्ग विशेष की निरंकुश सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सत्ता की पुनर्स्थापना की चाह में, बहुसंख्यक आबादी अंततः जिनके शोषण पर यह साम्राज्य खड़ा होगा को दिग्भ्रमित करने के लिए देशभक्ति और धर्मरक्षा का चोला ओढ़ने वाली ताकतों द्वारा कश्मीरी पंडित और कश्मीर की पूरी समस्या के लिए आज मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने वाली नैरेटिव पूरे देश में स्थापित की जा रही है I लेकिन जब इस मुल्क में मुसलमानों का नामोनिशान नहीं था तब आखिर कश्मीर के ब्राह्मण बौद्धों के खिलाफ क्यों उद्वेलित थे? दरअसल बौद्ध धर्म के विस्तार का आधार ही हिंदू धर्म के वर्गीय शोषण के खिलाफ शोषित वर्ग के अंदर पल रहा आक्रोश रहा है I ब्राह्मणवादी व्यवस्था में हजारों वर्षों से पीड़ित वर्ग को ससम्मान जीने का रास्ता बौद्ध और जैन धर्म के द्वारा मिला, स्वाभाविक है इससे ब्राह्मणवादी सत्ता को चोट पहुंची और उनका नुकसान हुआ और इसी वजह से देश के अन्य हिस्सों की तरह कश्मीर में भी इनके बीच संघर्ष हुआ I कश्मीर में हुए संभवतः अपने तरह के पहले गृहयुद्ध में ब्राह्मणों ने नागों के साथ मिलकर बौद्धों पर इस हद तक अत्याचार किया कि अंततः बौद्ध धर्म को घाटी से प्रतिस्थापित होना पड़ा और ब्राह्मणों को नई सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था में उच्च स्थान प्राप्त हुआ I लेकिन इससे हिंदू धर्म में किसी तरह का कोई सुधार नहीं हुआ I चंद जातियों द्वारा बहुसंख्यक जातियों का शोषण बदस्तूर जारी रहा जिसका प्रगटीकरण एक बार फिर शैव योगिनी ललद्यद के द्वारा हुआ I हिंदू धर्म की कुरीतियों व जातिय शोषण के खिलाफ देवी की दर्जा प्राप्त ललद्यद ने शोषित वर्गों के बीच वह माहौल बनाया जिसका लाभ पहले तो सूफी संतों को मिला लेकिन भविष्य में यही इस्लाम के विस्तार का आधार भी बना I लेखक ने इस किताब में विस्तृत ढंग से शुरुआत से ही बलपूर्वक इस्लामीकरण की अवधारणा को मिथ्या साबित किया है I कश्मीरी ब्राह्मणों की कट्टरता के कारण इस्लाम के विस्तार का एक और उदाहरण कश्मीर के शासक रिंचन के इस्लाम कबूल करने की घटना से भी मिलता है I हालांकि इस संबंध में मतैक्य नहीं है लेकिन कहा जाता है कि रिंचन हिंदू धर्म अपनाना चाहता था परन्तु उसके तिब्बती बौद्ध होने के कारण ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे शैव धर्म से दीक्षित करने से इंकार कर दिया और अंततः उसने इस्लाम धर्म अपना लिया I ब्राह्मणवादी व्यवस्था व जातीय शोषण का दुष्परिणाम पुनः तब देखने को मिला जब सैयदों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष हुआ I आर्थिक व राजनीतिक पृष्ठभूमि में सैयदों और ब्राह्मणों के बीच हुए संघर्ष का कारण धार्मिक उत्पीड़न माना गया लेकिन इस धार्मिक उत्पीड़न को दरअसल ब्राह्मणों का उत्पीड़न भी कहा जा सकता है I अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सत्ता कायम रखने और विशेषाधिकार सुरक्षित करने के लिए ब्राह्मणों ने जिस तरह समाज को विभिन्न जातियों में बांटकर बड़े वर्ग को हाशिये पर डाल दिया था, उस परिस्थिति में ब्राह्मणों का अकेला पड़ जाना स्वाभाविक ही था I इस माहौल में पीड़ित जातियों ने इस्लाम अपना कर दरअसल सीधे विरोध के बदले मूक अहिंसक विद्रोह के मार्ग का चयन किया I

कश्मीर के अब तक के संघर्ष को मजहबी संघर्ष की नजर से देखना वास्तव में एक तरफ तो हिंदू धर्म की कुरीतियों, शोषण व्यवस्था से मुंह चुराना है दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए अपनाएं जा रहे निरन्तर प्रोपगंडा और कुचक्र का अनायास हिस्सा बन जाना भी है I लेखक के शब्दों में वर्गीय समझ और सामाजिक अंतर्विरोधों को उनके आदमक़द में देखे जाने की जगह पूरे विमर्श को हिंदू बनाम मुसलमान बनाकर देखे जाने के लिए फर्जीवाड़े की जरूरत पड़ती है I इस दौर में यह फर्जीवाड़ा, ऐतिहासिक तथ्यों का सेलेक्टिव उपयोग आज की पीढ़ी को कट्टरपंथी बनाने, उन्हें बर्बाद करने के लिए पूरे शबाब पर है I

कश्मीर में ब्राह्मण संख्या के भले ही कम रहे हों लेकिन आर्थिक और राजनीतिक सत्ता तक उनकी पहुंच लगभग हर दौर में एक हद तक कायम रही है I मुगलों के दौर में कश्मीरी ब्राह्मण कश्मीर से बाहर निकल कर देश भर के विभिन्न शासकों के दरबारों में प्रतिष्ठित होते रहे I उस दौर में ही कश्मीरी ब्राह्मणों ने दिल्ली, आगरा सहित कई उत्तर भारतीय शहरों में अपनी बस्तियाँ बनाईं, तो क्या इसे भी कश्मीरी ब्राह्मणों का बलपूर्वक पलायन कहेंगे? दरअसल फारसी भाषा का ज्ञान और लंबे समय तक मुसलमानों के साथ सहजीवन का अनुभव देश की अन्य जातियों की तुलना में कश्मीरी ब्राह्मणों के लिए देश की शासन व्यवस्था का हिस्सा बनना और इस्लामी समाज से सहज रिश्ता बनाना आसान करता था I हालांकि कश्मीरी ब्राह्मण अपनी विशिष्टता, अपनी पहचान के लिए हमेशा सजग रहे थे और यही कारण है कि दिल्ली आकर राजा की उपाधि पाये कश्मीरी ब्राह्मण जयराम भान ने बादशाह मुहम्मद शाह (1719-1748) से कश्मीरी ब्राह्मणों के लिए अलग से ‘कश्मीरी पंडित’ के संबोधन की मांग की जिसे स्वीकार लिया गया और तब से कश्मीरी ब्राह्मणों को कश्मीरी पंडित कहे जाने की प्रथा प्रारंभ हुई जो अब तक जारी है I

कश्मीर में मुगलों के बाद के अफगान शासन के दौर में दरबार में उच्चवर्गीय कश्मीरी पंडितों का वर्चस्व बना, हालांकि यह दरबार तक ही सीमित था जहां उनका उच्चवर्गीय मुसलमानों से संघर्ष चलता रहा लेकिन शहरी और ग्रामीण इलाकों में आम हिंदू-मुसलमानों के बीच संबंध सामान्य बना रहा I अफगान शासन के आखिरी दौर में तो राजस्व पूरी तरह पंडितों के कब्जे में आ गया था और यह आगे भी जारी रहा I इस तरह लगान वसूलने का काम पंडितों के द्वारा होता था जबकि लगान देने वाले बहुसंख्यक किसान मुसलमान थे I इस एक तथ्य ने कश्मीर के इतिहास, कश्मीर की दिशा और दशा को काफी प्रभावित किया है I

अंग्रेजों से पैसे के बल पर कश्मीर को एक तरह से खरीद कर हासिल डोगरा काल में मुसलमानों के साथ शोषण, भेदभाव का एक नया दौर शुरू हुआ I जामिया मस्जिद में नमाज पर पाबंदी, पत्थर मस्जिद सहित अनेक मस्जिदों को सरकारी संपत्ति घोषित करना, गोकशी पर न सिर्फ प्रतिबंध बल्कि इसके लिए सजा-ए-मौत की व्यवस्था परिणामतः सैकड़ों लोगों की गोकशी के शक में हत्या, सिख द्वारा कश्मीरी की हत्या पर उसे महज 16 से 20 रुपये का जुर्माना और उस जुर्माने में से मृतक के हिंदू होने 4 रुपये, मुसलमान होने पर 2 रुपये की मुआवजा जैसे कारणों की वजह से सैकड़ों मुस्लिम परिवार पलायन कर पंजाब, उत्तर प्रदेश सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में विस्थापित हो गये I नवनीत चड्ढा बेहरा के अनुसार डोगरा राज कश्मीरियों के खिलाफ गहरे क्षेत्रीय पूर्वाग्रह और मुसलमानों के खिलाफ धार्मिक पूर्वाग्रह की कहानी है I हालांकि इस दौर में भी कश्मीरी पंडितों की सत्ता-प्रतिष्ठा और राजस्व विभाग पर प्राधिकार अक्षुण्ण रहा I

कश्मीर की समस्या को समझने के लिए वहां कायम रही असामनता व शोषण को जानना बहुत आवश्यक है I पांच प्रतिशत से कम हिंदू आबादी वाले कश्मीर घाटी में 1860 ई. में 45 जागीरदार थे जिसमें केवल 5 मुसलमान थे I विभिन्न विभागों में लिपिकीय पदों पर 5572 कश्मीरी पंडित थे जबकि उन पदों पर एक भी मुसलमान नहीं था I कश्मीर घाटी की 85 प्रतिशत आबादी कृषि में संलग्न थी और यह पूरी आबादी मुसलमानों की थी जिनसे गैरवाजिब करों की वसूली का जिम्मा पंडितों के जिम्मे था I गिलगिट रोड पर सामान ढोने के लिए हजारों लोगों को जबरन बेगार पर लगाया जाता था जिसमें से सैकड़ों उस बर्फीले दर्रों में ठंड व भूख, प्यास से मर जाते थे जो कि सिर्फ गरीब मुसलमान होते थे I बेगार पर जाते वक्त उनके परिजन उनकी अंतिम यात्रा मानकर उनसे लिपट कर रोते थे I डोगरा शासन द्वारा आखिरी दमड़ी तक वसूलने वाले कर की वसूली, बेगार के लिए मजदूर चिह्नित करने, कर न देने पर गिरफ्तार करने और सजा देने का काम मुख्य तौर पर कश्मीरी पंडितों के जिम्मे था जबकि कर देनेवाले किसानों, बेगारी करने वाले गरीबों में लगभग सभी मुसलमान थे I राज्य का 85 फीसद राजस्व भी मुसलमानों से ही आता था I

शेख अब्दुल्ला जैसे लोगों ने कश्मीर में हो रहे इस निरंतर शोषण, गैर बराबरी के खिलाफ आवाज उठाई तो स्वाभाविक रूप से उन्हें जनसमर्थन मिला I लेकिन शेख अब्दुल्ला जिस सामाजिक न्याय की अवधारणा को मूर्त रूप देना चाहते थे उसके लिए उन्हें जिन्ना के बदले नेहरू ज्यादा उपयुक्त दिखते थे, इसके अलावा वे कश्मीर की समस्या को मजहबी चश्मे के बदले आर्थिक, सामाजिक नजरिये से देख रहे थे, कट्टरपंथी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से उन्हें चिढ़ थी I स्वाभाविक रूप से जब उन्हें सत्ता मिली तो उन्होंने भूमि सुधार और साम्प्रदायिक सौहार्द पर जोर दिया I राज्य प्रशासन ने भूमि की अधिकतम सीमा 22.75 हेक्टेयर तय कर दी और जागीरदारों से इससे ज्यादा कब्जे की जमीन जब्त कर ली गई I बटाईदारों को जमीन का मालिकाना हक दिया गया I जम्मू-कश्मीर देश का इकलौता राज्य बना जहाँ बड़े जमींदारों को जमीनों के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया गया I जमींदारों के अनवरत शोषण से मुक्ति के लिए लागू किये गये इन भूमि सुधारों को कट्टरपंथी तत्वों द्वारा हिंदू विरोधी कहकर प्रचारित किया गया जबकि उस दौर में जम्मू-कश्मीर में 233 मुस्लिम जागीरदार थे तो 173 गैर मुस्लिम जागीरदार थे I इन सुधारों से बड़े स्तर पर लाभान्वित हिंदू दलित ही थे I कुल सात लाख लाभार्थियों में ढाई लाख जम्मू क्षेत्र के दलित थे I कर्ज माफी की व्यापक घोषणा से सीधा लाभार्थी गरीब और वंचित समाज के लोग थे और चूंकि कर्ज के धंधे में भी प्रजा परिषद से जुड़े सवर्ण हिंदू थे तो उन्हें यहां भी भारी नुकसान हुआ I चूंकि हिंदू धर्म की सामाजिक सत्ता, आर्थिक सत्ता सवर्ण हिंदुओं के पास रही है और धर्म का फायदा इसी वर्ग को मिलता है इसलिए कश्मीरी पंडित और राजपूत डोगराओं द्वारा उन्हें हुए नुकसान को हिंदू धर्म का नुकसान साबित कर देना स्वाभाविक ही था I कॉंग्रेस पार्टी के अंदर के दक्षिणपंथी तत्वों के द्वारा ये लोग नेहरू को दिग्भ्रमित करने में सफल रहे जिसका परिणाम शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के रूप में निकला और एक समय नई सुबह देखने की कगार पर खड़ा कश्मीर लंबे समय के लिये अंधेरे में डूब गया I यह सब सिर्फ मजहबी संघर्ष के कारण या राजनीतिक सत्ता के लिये नहीं हुआ बल्कि यह वर्गीय संघर्ष की वजह से आर्थिक सत्ता प्राप्ति के लिए भी हुआ I

सामाजिक आर्थिक असमानता की स्थिति को समझने के लिए निम्नलिखित दो आंकड़ों पर गौर करिये, आजादी के बाद के समय तक कुल जनसंख्या के महज 4 फीसद आबादी वाले कश्मीरी पंडितों के पास 30 प्रतिशत जमीनें थी I तमाम आरक्षण की व्यवस्था के बाद भी सत्तर के दशक में भी जम्मू कश्मीर की कुल आबादी के 68 प्रतिशत आबादी वाले मुसलमानों के पास 40 प्रतिशत राजपत्रित पद थे जबकि 1.5 फीसद आबादी वाले पंडितों के पास 28 प्रतिशत राजपत्रित पद थे, अगर इसे हिन्दू-मुस्लिम के नजरिये से देखें तो 32 फीसद सिख-हिंदू आबादी 60 फीसद राजपत्रित पदों पर मौजूद थीं I इन विसंगतियों की पृष्ठभूमि में कश्मीर समस्या को समझने की बहुत आवश्यकता है I

देश के बाकी सभी राज्यों में जमींदारों को जब्त जमीन के एवज में मुआवजा मिला, यह मुआवजा देने में उन राज्यों की पहले से कमजोर आर्थिक स्थिति पर भारी बोझ पड़ा I जम्मू- कश्मीर के जमींदारों ने हिंदुस्तान के अन्य राज्यों में लागू ‘संपत्ति के अधिकार’ कानून के तहत मुआवजा हासिल करने की कोशिश की लेकिन धारा 370 की वजह से उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली तो इन्होंने भूमि-सुधारों की जगह धारा 370 का विरोध शुरू कर दिया I लेखक ने ठीक लिखा है कि आर्थिक मोर्चे से अधिक ताकतवर धर्म का मुद्दा होता है और देशभक्ति अक्सर वह सबसे मजबूत आड़ होती है जिसके पीछे आर्थिक शोषण की प्रणाली को जीवित रखा जा सकता है तो संविधान सभा में धारा 370 पर कोई आपत्ति न करने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी ‘एक देश में दो विधान नहीं चलेगा’ के नारे के साथ देशभक्ति के हिंदुत्व आइकन बनकर उभरे I आर्थिक व सामाजिक सत्ता को कायम रखने के लिये बेचैन हिंदू धनी, सवर्ण जमींदारों ने हिंदू गरीब, दलितों के हित के लिये उठाये गये कदम के विरोध में धारा 370 को आधार बनाकर इसे हिंदू-मुस्लिम और देशभक्ति के रंग में रंग दिया और यह पूरे देश का मुद्दा बन गया I कश्मीर को इसका जो नुकसान उठाना पड़ा वह तो एक पक्ष है, इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि सवर्ण और पहले से धनी वर्ग की सत्ता, स्वार्थ के लिए चलाए गये इस आंदोलन को नासमझी में देश भर के शोषित वर्ग के लोग भी समर्थन देते रहे और दे रहे हैं I इन्हें कभी धर्म तो कभी देशभक्ति के नाम पर बहकाया जाता रहा है I

कश्मीर की समस्या को 1987 के चुनावों में फारुख अब्दुल्ला को जिताने के लिये की गई धांधली ने भी और गहरा कर दिया I कांग्रेस और फारुख अब्दुल्ला के गठबंधन को मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट से चुनौती मिल रही थी जिन्हें रोकने के लिये दिल्ली की कांग्रेस सरकार की शह पर चुनाव आयोग ने जमकर धांधली करवाई I यह धांधली न भी होती तो भी फारुख अब्दुल्ला ही जीतते भले ही मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट को कुछ सफलता और मिल जाती लेकिन इस धांधली ने कश्मीर के लोगों, विशेषकर युवाओं को दिल्ली से और दूर कर दिया I दो साल बाद ही हिंसक घटनाओं की शुरुआत हो गई I आतंकवाद के गहरे दौर में 1990 से अप्रैल 2011 के बीच कुल 43,460 लोग मारे गए जिनमें 16,686 नागरिक थे I इनमें आतंकवादियों द्वारा 319 कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई I हालांकि प्रोपगंडा के तहत इस संख्या को जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर लाखों, हजारों में तब्दील कर दिया जाता है I यह बात सच है कि हर एक इंसान की जिंदगी महत्वपूर्ण है लेकिन प्रभावित पंडितों की संख्या में जानबूझकर किया जाने वाला फर्जीवाड़ा मुसलमानों को विलेन साबित करने के लिये चलाई जा रही मुहिम का ही हिस्सा है I

1990 की स्थिति को राज्यपाल जगमोहन ने और विकट कर दिया जब वे दूरदर्शन से “सुधर जाओ वरना ठीक कर दूंगा” जैसे बयान देते दिखे I वे ‘आज कश्मीर में हर मुसलमान आतंकवादी है, सभी भारत से अलग होना चाहते हैं’ जैसे बयान भी देते रहे I जगमोहन की मंशा पर आज तक सवाल उठाये जाते हैं I तवलीन सिंह और कश्मीर में अभी तक रहने वाले पंडित समुदाय के प्रतिनिधि संजय टिक्कू जगमोहन की कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा को लेकर गंभीरता व उनके असल उद्देश्य को लेकर सवाल खड़ा करते हैं और इस आम चर्चा की ओर इशारा करते हैं कि जगमोहन पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिये प्रेरित कर रहे थे I के.एल.कॉल के अनुसार पंडितों से कहा गया था कि सरकार आतंकवाद को खत्म करने के लिये कश्मीर में एक लाख मुसलमानों को मारना चाहती है, इस हेतु उन्हें नौकरी, घर जैसे प्रलोभन तो दिये ही जा रहे थे इसके साथ ही नरसंहार खत्म होने के बाद पुनः उन्हें वापस लाने का वादा भी किया जा रहा था I हालांकि कश्मीर का सच हमेशा इस कदर उलझा रहा है या विभिन्न विपरीत उद्देश्यों की वजह से जानबूझकर उलझा कर रखा गया है कि इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना या किसी निष्कर्ष पर पहुँचना आसान नहीं है, इस वजह से भी अशोक कुमार पांडेय सर कश्मीर से जुड़े मुद्दों को लेकर किसी भी आसान सरलीकरण से बचने की सलाह इस किताब में बार-बार देते रहे हैं I उस दौर में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार की घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रोपगंडा की तरह आज हर बात में इस्तेमाल करने वाले लोगों को यह नहीं दिखता कि उस वक्त की केंद्र सरकार उन्हीं के समर्थन पर टिकी थी जो आज कश्मीरी पंडितों के सबसे बड़े पैरोकार बन बैठे हैं I तब इनलोगों ने कश्मीर के लिए कोई रथयात्रा क्यों नहीं निकाली या कश्मीरी पंडितों के मुद्दों पर ही सरकार क्यों नहीं गिरा दी I हाँ राम मंदिर हेतु रथयात्रा निकाली गई तब जब मंडल कमीशन की अनुशंसा लागू की गई और हजारों वर्षों से शोषित पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया गया I उस वक्त तो सबसे बड़ा मुद्दा कश्मीरी पंडितों का होना चाहिए था, लेकिन उग्र आंदोलन राम मंदिर के लिये शुरू किया गया !

जो लोग 90 के दशक में कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचार को आज मचाये जा रहे हर आतंक, बहुसंख्यकवाद के ढाल के रूप में प्रयोग करते हैं उनसे पूछा जाना चाहिए कि आजादी के वक्त तक तो जम्मू में भी मुसलमान ही बहुसंख्यक थे लेकिन विभाजन के दौरान दक्षिणपंथी ताकतों ने चार लाख मुसलमानों को जम्मू छोड़ने पर मजबूर किया जिसमें से आधे से अधिक मार दिए गए इस पर वे क्यों चुप हैं? और इस हद तक के आतंक के बावजूद घाटी में अल्पसंख्यक हिंदू को बहुसंख्यक मुसलमानों ने प्रताड़ित नहीं किया, साम्प्रदायिक तनाव की कोई बड़ी घटना नहीं हुई तभी महात्मा गांधी उस जहरीले माहौल में कश्मीर को उम्मीद की किरण बताते रहे I यही नहीं जहाँ पूरे हिंदुस्तान में धर्म के नाम पर विभाजन की आग लगी हुई थी कश्मीर के मुसलमान पूरी ताकत से पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ रहे थे और हिंदुस्तान के समर्थन में अपना सबकुछ न्योछावर करने को तैयार थे, इसके साथ ही हिंदू, मुस्लिम एकता पर आधारित कश्मीरियत की भावना से ओतप्रोत हो कर मीर मकबूल शेरवानी जैसे युवा पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर कब्जा के लिये भेजे गये कबायलियों से जूझते हुए ‘हिंदू-मुसलमान इत्तेहाद जिंदाबाद’ कहते हुए सीने में चौदह गोली खाकर शहीद हो रहे थे I

इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीरी पंडित प्रताड़ित हुए हैं, उनके कल्याण, सुविधा, रक्षा और पुनर्वास के सार्थक प्रयास होने चाहिए लेकिन यदि आप अशोक कुमार पांडेय सर की कश्मीर पर लिखी गई दोनों किताबों को पढ़ेंगे तो पायेंगे कि कश्मीर में प्रताड़ना के शिकार हर मजहब के लोग समय-समय पर हुए हैं, इसलिए इस समस्या को मजहबी चश्में से देखना भारी भूल होगी I

जिस धारा 370 को हटाने को आज एक उपलब्धि बताया जा रहा है उसे लागू होते वक्त कश्मीर घाटी के पंडितों और मुसलमानों में पूर्ण मतैक्य था I रह गई कश्मीरी नौकरियों और जमीन को कश्मीरियों के लिए आरक्षित करने वाले 35- ए की बात तो यह तो बीस के दशक में पंडितों के ही आंदोलन ‘कश्मीर कश्मीरियों के लिए’ से डोगरा काल में हासिल किये गये ‘राज्य उत्तराधिकार कानून’ का ही नया रूप था I अब इन्हें हटा देने से कश्मीर हमारा कितना अपना हो गया यह समझने के लिये ‘जम्मू-कश्मीर पंडित संघर्ष समिति’ के प्रमुख संजय टिक्कू को सुनना जरूरी है जो कहते हैं कि “मैं बता रहा हूँ कि आगे बेहद मुश्किल दिन आनेवाले हैं I आतंकवाद के उन शुरुआती दिनों से भी भयावह जब पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी थी I 370 हटाने के कदम ने इस समस्या को और 100 साल के लिए बढ़ा दिया है I धार्मिक विभाजन को और तीखा कर दिया है I हम यहां पॉलिटिकल टारगेट हो सकते हैं और मुमकिन है अगले तीन या पाँच सालों में आप संजय टिक्कू को यहाँ न देखें I इस बार हम मानसिक रूप से पलायन के लिए तैयार हो चुके हैं I”

मेरा यह स्पष्ट मत है कि यह दौर अंग्रेजों से आजादी के बाद इस देश पर आये सबसे कठिन दौरों में से एक है, यहां आज हर कदम पर झूठ, प्रोपगंडा का जहर बिखरा पड़ा है, इस दौर में अशोक पांडेय सर की कश्मीर पर लिखी किताब तपते धूप में छांव की तरह है जहाँ साँस ली जा सकती है I इस देश के नौकरशाह, नेता और विशेषकर युवा वर्ग को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए, यदि वे जानबूझकर अंधकार में रहना नहीं चाहते तो उनकी दृष्टि साफ होगी, व्यापक होगी, दोषमुक्त होगी I

कश्मीरनामा और इस किताब की शैली, संरचना में फर्क है लेकिन इस किताब को पढ़ते वक्त यह बार-बार महसूस होता है कि इसे इससे बेहतर ढंग से नहीं लिखा जा सकता था I यह किताब कई जगह आपको ठिठकने और अब तक बनी आपकी समझ को खंगालने के लिए मजबूर करती है, स्वाभाविक है यह किताब पूरी होने के बाद भी एक समय तक आपके दिलोदिमाग पर हावी रहती है I हर घर में सहेज कर रखने हेतु उपयुक्त इस किताब के लिए अशोक कुमार पांडेय सर और राजकमल प्रकाशन को बहुत धन्यवाद, बधाई I

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