उस पार
बाहर की तेज़ हवा बंद खिड़कियों को इस तरह धक्का दे रही थी जैसे उसे आज जबरन खोल कर अंदर आना तय कर चुकी हो लेकिन खिड़की जो भले कांच की हो, जिसे किसी भी वक़्त टूट जाने का, मिट जाने का भय हो वह भी पूरी ताकत से उन तेज़ हवाओं को रोकने में सफल हो रही थी. अपने बिस्तर पर लेट कर वह काफ़ी देर से हवा और खिड़की के इस संघर्ष को देख रहा था, कई बार उसके मन में आया कि कमरे की उस इकलौती बड़ी खिड़की को लकड़ी के पट्टों का सहारा दे कर मदद करे लेकिन वह उठा नहीं. वह तूफान बनती हवा और कमरे की दीवार बनी खिड़की की जद्दोजहद को बस महसूस करता रहा. इस जद्दोजहद में कुछ तो था जो उसे अपना लग रहा था, वह जो हो रहा था वह उसके भीतर भी काफ़ी पहले से उसके अंदर घुलता दिख रहा था.
बर्फीली इलाकों का मौसम कब बदल जाये, कब बहक जाए पता नहीं चलता. पिछले सप्ताह इतनी गर्मी थी और अब तीन दिनों से हर वक़्त आंधी, बर्फ़बारी. पहले दिन तो उसे ठीक लगा, गर्मी से राहत मिली, सडकें सफ़ेद हो गईं, पत्ते भी उजले दिखने लगे. धूप नहीं दिखी पर आसमान बादलों में हो कर भी चमक रहा था. बाज़ार में भीड़ कम हो गई थी जैसा कि अक्सर बर्फीली इलाको में होता है. ऐसे मौसम छुट्टी के बहाने बन जाते हैं. वह ख़ुद भी दुकान नहीं गया, छोटा भाई संजय ही दुकान सम्भाल रहा था लेकिन जैसा कि उसने बताया बिक्री काफ़ी कम थी.
लेकिन उसे दुकान की बिक्री की चिंता नहीं थी, उसे फ़िक्र सिर्फ़ इस बात की थी कि कहीं किसी दिन मौसम इतना न खराब हो जाये कि उसे ‘शनिराज’ तक पहुंचने में भी दिक्क़त हो जाये. रोज़ की तरह वह उस शाम भी गया था तो उसे बर्फ़ से ढका पूरी तरह ढका पाया. वैसे भी जब पूरे शिमला में कहीं बर्फ़ नहीं दिखती तब भी उस पहाड़ पर बर्फ़ दिख जाती है. उसके दादा कहते थे कि जब शिमला आज की तरह कंकरीट का जंगल नहीं बना था तब ज़्यादातर समय काफ़ी ऐसे पहाड़ दिख जाते थे. अब तो फ़रवरी में भी कुछ पहाड़ नंगे ही होते हैं.
शनिराज का वास्तविक नाम उसे नहीं पता पर उसे यह नाम शनिफा ने दिया है. अपने नाम शनिफा से शनि और उसके नाम राजीव से राज को मिलाकर. अब वह पहाड़ उसके ज़ेहन में सिर्फ़ इसी नाम से मौजूद है. वह पहाड़ जिसमें वे दोनों मौजूद हैं, जहाँ वे दोनों आहिस्ता-आहिस्ता हमराज, हमसाया हो गये. बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने. एक हवा का झोंका आया और उन दोनों को उस दहलीज़ के पार ले गया जहां अपने वजूद का बहुत कुछ अपना रहा नहीं और जो बचा भी वह उस सा हो गया, उसकी रंगत सा, उसकी सुगंध सा. एक एहसास जो एकदम खालिस था, जिसके ओर और छोर का कुछ पता नहीं, कहीं पता नहीं.
उसे लगता है जैसे जो घटा वह सपना था जिसके एक हिस्से को थामे वह अब भी है, जिसका पात्र बनकर वह अब भी जी रहा है. हक़ीक़त में बहुत कुछ धुंधला होता है, बंधन में छुपा होता है, जड़ों से जुड़ा होता है, सपने की तरह मुक्त नहीं होता, खुला नहीं होता, अपना नहीं होता, जहां कल और आज और आने वाले कल को बांधता कोई सिरा इतना कठोर नहीं होता. शनिफा थी, है, और रहेगी भी यह बात हक़ीक़त को चुभेगी लेकिन सपना उसे हंस के स्वीकार करेगी. हक़ीक़त के प्रश्न सपने को मंजूर नहीं. कोई बंधन उसे स्वीकार नहीं.
चार साल पहले ऐसे ही एक बर्फ़बारी वाले दिन वह पहली बार शनिफा से मिला था. अपने पिता का कोई ज़रूरी पार्सल लेने वह पोस्ट ऑफ़िस पहुंचा था. वह वहां किसी तरह पहुँच तो गया था लेकिन लौटते वक़्त बर्फ़बारी तेज़ हो गई तो वह कुछ देर रुक कर मौसम ठीक होने का इंतज़ार करने लगा. वह बरामदे में खड़ा होकर सामने की सड़क की तरफ़ देख रहा था कि तभी उसे एक लड़की पोस्ट ऑफ़िस की तरफ़ आती दिखाई दी. वह आई और पोस्ट ऑफ़िस के अंदर चली गई और कुछ देर बाद बाहर निकल कर उससे कुछ दूरी पर खड़ी हो कर मौसम ठीक होने का इंतज़ार करने लगी. अब उसने अपना दुपट्टा अपने चेहरे से हटा दिया था. वह खूबसूरत थी लेकिन वह उसकी खूबसूरती से ज़्यादा ऐसे मौसम में उसका वहां आना और सीधे अंदर चले जाने के बारे में सोच रहा था. यह छोटी सी घटना छोटी रह जाती यदि उसकी किताब की दुकान पर वह लड़की एक सप्ताह बाद फ़िर नहीं आती.
अपने बिस्तर पर करवट बदलते हुए वह सोच रहा था कि हम जितना सोचते हैं क्या हमारे बारे में कोई और भी हमसे ज़्यादा सोच रहा होता है. क्या हमारे बस को बेबस करने वाला कोई और होता है. क्या होता यदि उस दिन बर्फ़बारी नहीं हुई होती और वह पोस्ट ऑफ़िस में नहीं रुका होता तब तो वह शनिफा से उस दिन नहीं मिलता. और जो उस दिन नहीं मिलता तो जब वह किताब की दुकान पर आई तब शायद उससे ज़्यादा बात नहीं कर पाता. बात हुई भी और यदि शनिफा के एनजीओ का ऑफ़िस जहां वह नौकरी करती थी उसकी दुकान के ठीक बगल में नहीं होता तो क्या वह दोनों उस रास्ते पर चल पाते जहां वे चलते रहे.
शनिफा के पिता पोस्ट मास्टर थे और कुछ समय पहले ही ट्रांसफर हो कर शिमला आये थे. शनिफा का ग्रेजुएशन उसी वर्ष पूरा हुआ था और शिमला आते ही एनजीओ में नौकरी करने लगी थी. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हुए नौकरी करने की वजह आर्थिक से ज़्यादा व्यक्तिगत थी. शनिफा अब अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी, जब वह बारह साल की थी तब उसके बड़े भाई की मौत एक सड़क दुर्घटना में हो गई थी. उसके भाई की मौत ने उसके माता-पिता के मन में उसके लिए असुरक्षा की भावना को ज़्यादा गहरा कर दिया था. धार्मिक तो वे पहले से थे लेकिन उस घटना के पश्चात चारों वक़्त का नमाज़ उसके माता-पिता के जीवन का अभिन्न अंग बन गयी. रोज़ा वे पहले भी रखते थे लेकिन अब उनका उपवास ज़्यादा कठोर हो गया था. रोज़ा के दिनों में उसके पिता लगभग पूरी दुनिया से कट से जाते थे. घर से मस्जिद के बीच ही उनका सारा समय बीतता. इन बातों के अलावा शनिफा को लेकर वे हर वक़्त आशंकित रहते, इस हद तक कि यह आशंका विभिन्न तरह की पाबंदियों में तब्दील हो गई. ग्रेजुएशन होने तक तो शनिफा के पास घर से बाहर निकलने के बहाने थे पर उसके पश्चात वह घर में एक तरह से कैद हो गई थी. शनिफा के लिए नौकरी उसके घर से बाहर निकलने का एक बहाना था.
शनिफा के घर की इस कहानी में राजीव अपने घर की एक समानता ढूंढ लेता था. राजीव के घर का माहौल भी अत्यंत धार्मिक था. दादा, माता-पिता सभी सुबह की शुरुआत लंबी पूजा से करते. नवरात्र जैसे बड़े पर्वों के अलावा भी हर महीने में कम से कम पांच रोज़ उनका उपवास करना आवश्यक था जिसके लिए वे तमाम तरह के पूजा के बहाने ढूंढ लेते. राजीव को इससे ऊब होती लेकिन वह भी इन्हें मानने को बाध्य था.
शनिफा-राजीव के बीच का परिचय, दो छोटी मुलाक़ात, फ़ेसबुक, व्हाट्सएप, फ़ोन पर लंबी बातों के बाद कब लगभग रोज़ शाम चार बजे से छः बजे तक की दो घंटे चलने वाली मुलाक़ात में तब्दील हो गया उन्हें पता ही नहीं चला. पहले उनकी मुलाक़ात किसी कॉफ़ी शॉप में होती पर घरवालों द्वारा देखे जाने का भय और पहाड़ों में शनिफा की अत्यधिक रूचि ने उन्हें शिमला मुख्य शहर से थोड़ा बाहर उस कोने पर ला कर बैठा दिया जहां से पहाड़ों की श्रृंखला के बीच एक पहाड़ साफ़ दिखाई देता था जो अपनी ऊंचाई, विशालता और भव्यता की वजह से मानो ख़ुद को पहाड़ों का राजा घोषित कर रहा हो. उस पहाड़ के चारों तरफ़ और सामने का प्राकृतिक सौन्दर्य शनिफा को मंत्रमुग्ध कर देता था.
शनिफा को यह पहाड़ बेहद पसंद था, इस हद तक कि वह जिस दिन वहां नहीं जा पाती इस बात के अफ़सोस का जिक्र वह राजीव से कई बार करती. कभी-कभी राजीव चिढ़ने का दिखावा करते हुए कहता भी कि “मुझे तो लगता है जैसे तुम रोज़ मुझसे नहीं बल्कि मेरे बहाने उस पहाड़ से ही मिलने जाती हो”I इस पर शनिफा भी हंसकर जवाब देती कि- “चलो इसी बहाने तुम भी तो रोज़ मिल लेते हो मुझसे”I
जब शनिफा ने उस पहाड़ का नाम शनिराज रखा तो पहले तो राजीव खूब हंसा लेकिन बाद में इससे उसे शनिफा की उस पहाड़ के प्रति दीवानगी और ख़ुद उन दोनों के अनाम रिश्ते के प्रति संजीदगी का भी अहसास हुआ. भले ही वह शनिफा से अपने रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाया हो लेकिन पहाड़ के नामकरण ने जैसे उनके रिश्ते को भी औपचारिक सूत्र में बांध दिया था और यह बात उसके मन में पहली बार उस पहाड़ के प्रति स्नेह जगा पाई थी.
वे दोनों उसी तरह मिलते रहे, सालो-साल, पूरे तीन साल तक, घरवालों से छुपकर और इस रिश्ते के नाम, प्रकृति, भविष्य से ख़ुद को भी अनजान रख कर. वे बस साथ थे, साझा थे, इकट्ठे थे और उनके साथ बहुत कुछ साझा था. और बीतते वक़्त के साथ वे समझते गये कि यह जो साझा है वही पूरा है, उसके बिना और उसके बाद जो भी है वह अधूरा है बावजूद इसके वे यह भी जानते थे कि यह जो पूरा है उसे इकट्ठे महसूस करते हुए जी पाने की अवधि तय है. वे साथ चल कर पूर्ण थे, पर उनका साथ चलना अनंत नहीं था. कभी उन्होंने इस पर चर्चा नहीं की पर उन्हें पता था कि उनके धर्म का बोझ और परिवार की ज़िम्मेवारी उन्हें कभी वह रेखा पार नहीं करने देगी जो उनके रिश्ते को निरंतर उसी तरह रख पाती जिस तरह वे जी रहे थे, जिस तरह वे ख़ुश थे. इसीलिए उन्होंने तय किया कि वे कभी इस सम्बन्ध में बात ही नहीं करेंगे.
उन दोनों का सच उस आज में था जिसे वे जी रहे थे, लेकिन, किन्तु, परन्तु, अन्यथा जैसे अवरोधों से मुक्त, प्रश्नचिह्न विहीन, भविष्य को उत्तरदायी हुए बगैर. वे लम्हों को लम्हों से सींच रहे थे, सिलवटों को हर रोज़ समेट रहे थे, वे हंस रहे थे, ख़ुश हो रहे थे, एक दूसरे के संवाद बन रहे थे और सूत्रधार पहाड़ से प्रश्न कर रहे थे.
“आज विलम्ब हुआ, शनिराज नाराज होगा’, “देखो शनिराज कुछ उदास है क्या”, “तुम सच बोल रहे हो तो खाओ शनिराज की कसम”- जैसे वाक्य शनिफा के होंठों पर सहज थे, जितने सहज उतने संजीदा. तो कई बार उनका शनिराज भी उन दोनों को संजीदा कर देता या फ़िर उनके आँखों में तैरती संजीदगी को शब्द दे देता-
“राजीव तुमने शनिराज के उस पार कभी झांका है, क्या है वहां”- यह कहने के लिए शानिफा ने पूरे दो साल का वक़्त लिया था.
“नहीं, मैंने नहीं देखा कभी”- राजीव इस सवाल से बचने की कोशिश में बस इतना बोल पाया था.
“तुम्हारा मन नहीं करता देखने का”- शानिफा का यह प्रश्न पहले से ज़्यादा बड़ा था इसलिए इसका जवाब देना भी राजीव के लिए ज़्यादा कठिन था.
“नहीं, कभी सोचा नहीं इस बारे में”- राजीव का यह जवाब पूरा सच नहीं था पर इसमें झूठ की जितनी मिलावट थी उतनी ही तो उनकी इकट्ठी धड़कने थी, साँसें थी.
इस जवाब से शनिफा चौंक गई, अब उसकी नज़रें पहाड़ से हटकर पहाड़ से नज़र चुराते राजीव पर टिक गईं, उसे इससे ज़्यादा इमानदार जवाब की अपेक्षा थी. राजीव शानिफा की निराशा को समझ रहा था पर पूरा सच न बोलने की उसकी विवशता ही तो उसके रिश्ते की बची हुई पूंजी थी जिसे वह खो नहीं सकता था. जब शानिफा की प्रश्नों से भरी निराश नजरों को सहना असहनीय हो गया तो उसने इससे बचने के लिए उत्तर देने के बजाय प्रतिप्रश्न करना ज़्यादा उचित समझा, उस धर्म संकट में यह ही बेहतर विकल्प था.
“तुम्हे इच्छा होती है शनिराज के उस पार देखने की”- राजीव का यह पलायन ही उसका आख़िरी हथियार था जिसमें बहुत सारा लोभ भी था, आशा संजोती प्यास भी था जिसे महसूस करने की उन दोनों को मनाही थी.
अब जा कर शानिफा की नज़रें राजीव के चेहरे से हट पाई, उसकी साँसों की ठंडक अब महसूस की जा सकती थी, उसने पुरजोर नजरों से पहाड़ को निहारा और उसे देखते हुए ही बोली- “राजीव यदि मैं यह बोलूं कि कभी इच्छा नहीं हुई उस पार झाँकने की तो यह झूठ ही होगा. मन की चोरी हमसे तो छुपी नहीं होती न. लेकिन अब मैं उस पार देखना नहीं चाहती. हो सकता है उस पार की दुनिया इससे खूबसूरत हो, हो सकता है उधर कोई जन्नत हो पर यह नहीं भी हो सकता है. यह जो हमारे सामने है, जो यह शनिराज अभी मुस्कुराता दिख रहा है वह भी तो पूर्ण है, सच्चा है. हम हैं और हमारा है. मुझे यह निश्चिंतता ज़्यादा प्यारी है. तुम्हारे साथ किसी अनजानी राह पर चलने की इच्छा नहीं होती, तुम्हारे साथ रोज़ इस मुकम्मल जगह पर आना ही मुझे संतुष्ट करता है.”
शनिफा का यह जवाब ज़्यादा इमानदार था, सच था, दृढ़ था. उसी तरह जैसे दोनों का मुसलमान और हिन्दू होना सच था, दृढ़ था. उसी तरह जैसे मुसलमान और हिन्दू होने की विवशता को कभी न पार करने की आकांक्षा का होना पहले दिन से सच था, दृढ़ था. उसी तरह जैसे उस रिश्ते को सदैव अनाम रखने का निर्णय सच था, दृढ़ था, जो दिल में है उसे कभी जाहिर न करने का निर्णय सच था, दृढ़ था.
दृढ़ तो शनिफा का वह निर्णय भी था जब अपने पापा के दिल्ली ट्रांसफर की खबर सुनाते वक़्त उसने कहा था कि- “मैं यहां से हमेशा के लिए कब जाउंगी यह कभी नहीं बताउंगी, रोज़ ऐसे ही मिलने आऊंगी और फ़िर किसी अगले दिन से एकाएक नहीं मिलूंगी. शिमला से निकलते ही मैं अपना मोबाईल नंबर बंद कर दूंगी, फ़ेसबुक अकाउंट भी बंद कर दूंगी. तुम वादा करो कि तुम कभी अपना फ़ेसबुक अकाउंट बंद नहीं करोगे. मैं तुम्हारे बारे में ताउम्र जानना चाहती हूँ और इच्छा है कि तुम मेरे बारे में कभी नहीं जानो.”
राजीव के आंसू, राजीव का बिलखना, राजीव की तड़प के समक्ष भी शानिफा अडिग रही. उसने राजीव से वादा भी लिया.
“मैं कभी शादी नहीं करूंगा, तुम्हारे लिए नहीं ख़ुद के लिए”- राजीव ने हताश हो कर कहा था.
“मैं शादी करूंगी, तुम्हारे लिए नहीं, ख़ुद के लिए, मेरा ख़ुद अम्मी-अब्बू का भी है”- शानिफा ने कहा था.
“शादी के बाद कभी शिमला आओगी”- राजीव बमुश्किल कह पाया था.
“आऊंगी भी तो शौहर के साथ ही न, पर तुम्हारे सामने नहीं आऊंगी. हाँ अगर आई तो इसी वक़्त शनिराज से मिलने अकेले आऊंगी, तुम भी कभी-कभी शानिराज से मिलते रहना”- यह शानिफा की आख़िरी विनती थी.
“तुम मेरे साथ ऐसा क्यों कर रही हो”- राजीव की यह आख़िरी याचना थी.
“जो तुम्हारे साथ कर रही हूँ वह ख़ुद के साथ भी तो कर रही हूँ, तुम्हारे लिए भी तो कर रही हूँ”- शनिफा की ये बात अब हमेशा के लिए शिमला की वादियों में गूंजती रहने वाली थी, हर बहकते, बिखरते, मिटते लम्हों में राजीव के कानों में गूंज कर उसे थामने वाली थी.
शनिफा-राजीव रोज़ मिलते रहे, शाम के अपने तय समय पर, शनिराज के सामने बैठकर. रोज़ लौटते वक़्त शनिफा की आँखों में वही तसल्ली होती जो वह वहां आ कर सालों से बुन लेती थी, होंठों पर वही मुस्कुराहट होती जो राजीव को भरमा देती थी कि यह जो उनकी दुनिया है वह हमेशा कायम रहेगी. “कल तो आओगी न”- चूंकि सालों में राजीव ने कभी ऐसा पूछा नहीं था इसलिए यह प्रश्न करने की अब भी मनाही थी जो उनके मुकम्मल जहां पर शक पैदा करती और इसलिए अपने तमाम डर, बेचैनी के बावजूद भी राजीव चुप रहता.
फ़िर एक सुबह जैसा कि शानिफा ने कहा था, वह शिमला में नहीं थी. उस दिन से कभी नहीं थी. एक साल बीत गया, राजीव अब भी शनिराज से उसी शाम के तय वक़्त पर मिलता है, रोज़ मिलता है, बतियाता है, सुनाता है, सुनता है. उत्तर के इंतज़ार में, प्रति प्रश्न की प्यास में.