बेड़ियाँ
मनोहर ट्रेन से उतर कर स्टेशन बिल्डिंग को गौर से देख रहा था और जितना देख रहा था उतना ही निराश हो रहा था. स्टेशन बिल्डिंग में उसे अब तक कोई ऐसा बड़ा अंतर नहीं दिख रहा था जिसे देखकर वह ख़ुश हो सके. क्या 35 साल में यहाँ कुछ भी नहीं बदला? ट्रेन के डिब्बों का रंग तो लाल से नीला हो गया, शहर भी कितना बदला-बदला दिख रहा था फ़िर उसके गाँव से सात किलोमीटर दूर की यह स्टेशन बिल्डिंग जस की तस क्यों है? शहर वाला स्टेशन तो पहचान में ही नहीं आता और स्टेशन ही क्यों वह शहर ही अब पहचान में नहीं आता. ऐसा लगता है जैसे बम्बई हो.
उसने बम्बई कभी देखा नहीं था लेकिन सुन रखा था कि वहाँ बड़ी-बड़ी बिल्डिंग, जगमग रौशनी और असंख्य लोग दिखते हैं. 35 साल बाद जेल से निकलकर जब तक वह शहर वाले स्टेशन तक पहुँचता तब तक बदली हुई दुनिया देखकर उसकी आँखें चौंधियां चुकी थी. न सड़क पहचान में आ रही थी न कोई बिल्डिंग न तो रेलवे स्टेशन ही. और भीड़ इतनी जितनी उसने 60 साल की उम्र में अब तक कभी देखी नहीं थी. उसने जितना सोचा था दुनिया उससे ज़्यादा बदल चुकी थी, उसके गाँव से 80 किलोमीटर दूर का वह शहर जहाँ की जेल में उसने सज़ा काटी वह काफ़ी हद तक बदल कर उसकी कल्पना की बम्बई जैसा हो गया था.
शहर में आये इतने सारे बदलाव को देखकर, उत्साहित हो कर उसने आशा की थी कि उसके गाँव से सात किलोमीटर दूर का यह कस्बा भी जहाँ के स्टेशन पर उतरकर उसे अपने गाँव जाना था बदलकर पुराने शहर जितना विकसित तो हो ही गया होगा. लेकिन 35 सालों में तो यहाँ कुछ भी नहीं बदला था. ऐसा लगता था जैसे यहाँ का समय ठहरा हुआ हो. यहाँ सबकुछ अब भी रुका ही हो.
गर्मी के दिन में दोपहर के समय सूरज आग उगल रहा था, गाँव तक पैदल जाने की हिम्मत उसे नहीं हो रही थी. जब वह गाँव में रहता था तब तो वह पैदल ही जाता था लेकिन तब जवानी के दिन थे. 35 साल जेल की यातना ने उसकी उम्र 70 पार सरीखी कर दी थी. बाल-दाढ़ी कब के पक चुके थे. चेहरा झुर्रियों से भरा था. वक़्त की मार ने उसके कंधे तक को झुका दिया था. मन की ताकत, तन की ताकत सब क्षीण हो चुकी थी. स्टेशन के बाहर रिक्शा लगे थे. उसने सोचा कि वह गाँव तक रिक्शा से ही जायेगा, वह एक नौजवान रिक्शावाला की तरफ़ बढ़ा लेकिन फ़िर जैसे ही उसे उसके गाँव के पहले ठाकुरों के गाँव का ध्यान आया वह रुक गया. राजपूतों के गाँव में वह रिक्शा से कैसे जा सकता है? वहाँ तो पैदल ही जाना होगा. वैसे भी राजपूतों के गाँव के आगे तो रिक्शा जाता नहीं.
फ़िर उसने सोचा कि उसे अब भला पहचानेगा कौन? एक युग बीत गया, जो पहचान सकते वे तो कब के इस दुनिया से चले गये होंगे. ठाकुरों में कोई हमउम्र तो तब भी उससे शायद ही कभी बात करता होगा सिवाय सर्वेश बाबू के. सर्वेश बाबू अर्थात सर्वेश सिंह, ठाकुर राघवेन्द्र प्रताप सिंह का बड़ा बेटा जिनके यहाँ उसका परिवार कई पीढ़ियों से मज़दूरी कर अपना जीवन यापन करता था. कहारों का हर घर किसी न किसी ठाकुर खानदान का पीढ़ियों से मजदूर था. दरअसल पूरी कहार टोली लगभग दो सदियों से राजपूतों द्वारा दान में दी गई ज़मीन में ही बसी थी. हर ठाकुर खानदान ने अपने लिए एक कहार परिवार को तय कर रखा था इसलिए जितने राजपूतों के महलनुमा घर थे, गिनती के लगभग उतनी ही कहारों की झोपड़ियाँ थी.
धूप इतनी तेज़ थी कि मनोहर पैदल जाने की हिम्मत नहीं कर सका और यह सोचकर कि ठाकुरों के टोले के पहले रिक्शा से उतर कर वहाँ से पैदल चला जायेगा, वह रिक्शे वाले के सामने जा कर खड़ा हो गया जो कि अपने रिक्शा का हैंडल पकड़े सवारी का इंतज़ार कर रहा था.
“कहाँ जाओगे बाबा”- नौजवान रिक्शे वाले ने अपने सीट पर बैठते हुए मनोहर से पूछा.
अपने लिए पहली बार ‘बाबा’ जैसा सम्बोधन सुन कर मनोहर चौंका क्योंकि 35 साल बाद अपने गाँव पहुँचने के उत्साह में वह यह भूल ही गया था कि जो पूरी दुनिया बदली है उसमें वह भी कितना बदल गया है. अब वह नौजवान मनोहर से बूढ़े मनोहर में तब्दील हो चुका है. उसने अपने गाँव का नाम बताया – “सिमरिया’. इतने साल बाद अपने गाँव का नाम लेना उसे अच्छा लगा अतः उसने फ़िर से दुहराया- ‘सिमरिया चलोगे बाबू?”
“सिमरिया कौन टोला?”- रिक्शावाले के इस प्रश्न ने मनोहर को चौंका दिया. रिक्शा तो सिमरिया में सबसे पहले पड़ने वाले राजपूतों के टोले के आगे तो जाते ही नहीं फ़िर यह टोलों का नाम क्यों पूछ रहा है. उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि वह उसे क्या जवाब दे.
“बाबा बोलो कौन से टोला जाओगे, राजपूत टोला, यादव टोली, कुर्मी टोली, कोइरी टोली या कहार टोली, बताओगे तब तो भाड़ा बताऊंगा”- मनोहर की चुप्पी से रिक्शावाला नौजवान थोड़ा खीज गया था. अभी-अभी ट्रेन आई थी अतः उसके लिए यह जल्दी सवारी पकड़ लेने का समय था, वह एक ही सवारी से तोल-मोल में ज़्यादा समय नहीं बिताना चाहता था.
लेकिन उसके इस प्रश्न ने मनोहर की उलझन को और बढ़ा दिया. रिक्शावाला राजपूतों के गाँव को राजपूत टोला कह रहा था. सिमरिया तो राजपूतों का ही गाँव है. उसके बाद रहने वाली बाकी पिछड़ी जातियों की आबादी भले ज़्यादा है लेकिन उनकी पूरी आबादी सिमरिया के एक चौथाई हिस्से में ही बसी थी. खेत-खलिहान सब राजपूतों का ही है. वह जबतक गाँव में था तो दूध बेचकर यादवों ने और स्कूल में मास्टरी कर, दुकान धंधा कर कुर्मी-कोइरी ने थोड़ी बहुत ज़मीन खरीद ली थी पर इनमें से किसी के पास इतनी ज़मीन नहीं थी कि सिर्फ़ खेती से पेट पाल सके. और उस समय तो ठाकुरों के गाँव को बीचोबीच दो भाग करने वाली मुख्य सड़क को रिक्शे से पार करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था. पिछड़ों के घर होने वाली बेटी की शादियों में लगने वाली बारात, बैंड-बाजा, ढोल सब राजपूतों के गाँव को पार करने बाद ही शुरू होती थी. उनकी सड़क को शांति से ही पार किया जाता था. इसलिए रिक्शावाले के प्रश्न से वह अकचका गया. लेकिन उस वक़्त वह सब पता करने, समझने का समय नहीं था, रिक्शावाले की जल्दबाजी को वह समझ रहा था.
“देखो बाबू मुझे तो कहार टोली जाना है लेकिन तुम मुझे साहबों के गाँव के ठीक पहले उतार देना, वहाँ से मैं पैदल चला जाऊंगा”- मनोहर ने सम्भलते हुए जवाब दिया.
“साहबों का गाँव, कहाँ है साहबों का गाँव”- रिक्शावाले के हर सवाल की तरह यह सवाल भी मनोहर की उलझन को और बढ़ा गया. एक पल के लिए वह सोचने लगा कि शायद वह किसी ग़लत जगह उतर गया है. उसने मुड़ कर स्टेशन बिल्डिंग को देखा, स्टेशन तो वही था फ़िर रिक्शावाला इस तरह से क्यों बात कर रहा था. सिमरिया में आख़िर राजपूतों को साहब ही तो बोला जाता है. उसके पिता और वह ख़ुद भी तब ज़्यादातर समय मालिक कह कर ही उनका सम्बोधन करते थे. वे ज़मींदार लोग थे, जिन्होंने उनलोगों को बसाया था, उन्हें मालिक-मुख़्तार न कहें, साहब न कहें तो क्या कहें?
“राजपूतों के गाँव की बात कर रहा हूँ बाबू”- मनोहर ने जवाब दिया. उलझन बढ़ती जा रही थी और अब वह भी इसे सुलझाने के बदले जल्दी अपने गाँव पहुँचना चाह रहा था.
“हाँ तो ऐसा बोलो न कि राजपूत टोला, साहब-वाहब क्या बोल रहे हो, और तुम्हें जब कहार टोली जाना है तो राजपूत टोला के पहले क्यों उतरोगे, भाड़े में ज़्यादा का फर्क तो है नहीं”- रिक्शावाला भी मनोहर से कम उलझन में नहीं था, मनोहर की बातें उसकी भी समझ के बाहर थी. लेकिन अब मनोहर उसका ज़्यादा वक़्त बर्बाद करना नहीं चाहता था इसलिए “बाबू, तुम बस मुझे वहाँ उतार देना और जो भी भाड़ा है वह ले लेना” कहते हुए रिक्शा पर बैठ गया.
रिक्शा जब स्टेशन के आगे बढ़ा तो वह कस्बे का बाज़ार, दुकानों को निहारने लगा. यहाँ उसे कुछ परिवर्तन दिखा. अब खपरापड़ोस दुकानों की जगह पक्की और दो-तीन मंज़िलों वाली दुकानों ने ले ली थीं. हालाँकि अभी भी कुछ दुकानें यथावत पुराने स्वरूप में ही थीं जो कि उस बाज़ार की पुरानी पहचान को ज़िन्दा रखे हुए था. परिवर्तन तो दिख रहे थे पर शहर की तरह सबकुछ एकदम से यहाँ बदला नहीं था. भीड़ ज़रूर तब की तुलना में कुछ ज़्यादा थी. पर मनोहर वहाँ हो रहे बदलाव और उनमें अब भी बची पुरानी पहचान को देखकर ख़ुश था. अब उसे अपने घर लौटने का अहसास हो रहा था.
लेकिन रिक्शा जैसे ही बाज़ार से बाहर निकली और सुनसान सड़कों पर बढ़ने लगी तो दोनों तरफ़ दिखाई दे रहे खेतों को देखकर उसे लगा जैसे यह तो उसका वही पुराना रास्ता है. सड़क अब बढ़िया थी, पहले से चौड़ी और पक्की थी पर दोनों तरफ़ के खेत तो वही पुराने थे. जैसे हर खेत उसे और हर खेत को वह पहचान रहा था. बीच-बीच में दिखने वाले आम के बगीचे भी अपने पुराने स्वरूप में ही थे. वह तो जैसे हर बगीचे और सड़क किनारे के हर पेड़ को पहचान रहा था, उन्हें देख के पुलकित हो रहा था, मानो उनसे बात कर रहा था. उसे लगा जैसे बीच के 35 वर्ष कहीं उड़न छू हो गये. सबकुछ पुराना लौट आया. थोड़ी देर के लिए वह अपनी सारी पीड़ा, सारा दर्द-तकलीफ़ भूल गया. वह भूल गया कि किस तरह उसने अपने जिस खानदान के लिए बलिदान दिया था उस खानदान ने बीते 35 वर्षों में 35 बार भी उसकी सुध नहीं ली. उसके पिता जब तक जिन्दा रहे तो आते रहे, मिलते रहे पर उनके इस दुनिया से चले जाने के बाद के बीस वर्षों में बमुश्किल पांच बार ही उससे कोई मिलने आया था. अब तो उसके बड़े भाई भी इस दुनिया में नहीं रहे और तब बाकी के जो लोग बचे हैं उनके लिए उसका होना और न होना बराबर ही था. लेकिन उस वक़्त वह जाने-पहचाने खेत, बगीचों को देखकर ही ख़ुश था, कुछ इस तरह जैसे इन खेतों की तरह, पेड़ों की तरह उसके गाँव में भी उसे सबकुछ वैसा ही मिलेगा जैसा वह छोड़ कर गया था, जहाँ वह छोड़ कर निकला था.
रिक्शा जब कुछ और आगे बढ़ा तो उसकी ख़ुशी और उत्साह पर हक़ीक़त का बोझ बढ़ने लगा. पुरानी यादें, घटनाएँ, सच सब उस पर हावी होने लगा. भूला तो वह कभी नहीं था पर उन्हीं सड़कों पर आगे बढ़ते हुए उसे वह सारा दुःख दोगुनी ताकत से हलचल मचाते हुए याद आने लगा जब वह 35 वर्ष पहले पुलिस की जीप में हथकड़ी लगाये शहर की तरफ़ जाते समय महसूस किया था. अब यह दर्द उससे भी ज़्यादा महसूस होने लगा क्योंकि उसमें उसके बाद की कड़वी और बदतर हक़ीक़त भी जुड़ गईं थी.
ऐसा लग रहा था जैसे सबकुछ कल की ही बात हो. उसकी नई-नई शादी हुई थी. इतनी सुंदर पत्नी थी- मंजरी, कितना ख़्याल रखती थी उसका. वह भी कितना चाहता था उसको. वह कहती थी की उससे उसका रिश्ता जन्म-जन्मान्तर का है. वह तो अनपढ़ था पर पता नहीं कैसे उसने पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई कर रखी थी इसलिए उसे ऐसी बहुत सारी बातें पता थी जिसके बारे में वह कुछ भी नहीं जानता था. शहर की बातें, देश-दुनिया की बातें. माँ-पिता, भाई-भाभी, छोटा भतीजा, पत्नी, इतनी ख़ूबसूरत दुनिया थी उसकी. लेकिन उसकी ख़ुशियों को जैसे किसी की नज़र लग गई और एक ही झटके में सब उजड़ गया.
बहुत शोर हुआ कि किसी ने प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की हत्या कर दी. उसने सुना और अनसुना कर दिया, साहबों के यहाँ चलने वाले रेडियो की खबर से उसे क्या मतलब? मंजरी ने सुना तो कहा कि यह बहुत बुरा हुआ, पर उसे यह समझ में नहीं आया कि दिल्ली में कोई मरा तो इसमें उसका क्या बुरा हुआ पर चूँकि मंजरी ने कहा तो उसने मान लिया कि बहुत बुरा हुआ. फ़िर उसने सुना कि दंगा भड़क गया. हिन्दू-मुस्लिम वाला नहीं जिसके लिए साहब लोग पिछड़ों को सावधान करते रहते थे बल्कि हिन्दू-सिख वाला. क्योंकि इंदिरा गांधी को एक सिख ने मारा था तो हिंदू अब सारे सिखों को मार रहे थे. यह बात भी उसे तब समझ में नहीं आई थी कि जिसने मारा उसके बदले सारे सिखों को क्यों मारा जा रहा है पर उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि वह सिख भी नहीं था और वहाँ कस्बे के पोस्टमास्टर सिख परिवार के अलावा दूसरा कोई सिख भी नहीं था. लेकिन मंजरी ने कहा कि यह और बुरा हो रहा है तो उसने मान लिया कि यह और बुरा हो रहा है.
पर उसे पहली बार बुरा होने का अहसास तब हुआ जब उस रात उसके बाबूजी घबराते हुए आये और बोले कि सर्वेश बाबू ने पोस्टमास्टर सिख परिवार को सुबह ही ख़त्म कर दिया है, पोस्टमास्टर की पत्नी, बेटी सहित पूरा परिवार साफ़. लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात यह थी कि पुलिस सर्वेश बाबू को पकड़ने आ धमकी थी. और सबसे बड़ी बात यह थी कि ठाकुर राघवेन्द्र सिंह उसके परिवार पर की गई कई पीढ़ियों के अहसान के बदले उससे कुर्बानी मांग रहे थे. उन्होंने रोते-रोते बाबूजी से कहा था कि सर्वेश बाबू को बचाने के लिए मनोहर जुर्म अपने ऊपर ले कर जेल चला जाये, बाद में वे उसे बड़ा से बड़ा वकील कर छुड़वा देंगे. उन्होंने अपनी पगड़ी तक बाबूजी के पैरों पर रख दी थी और बाबूजी ने उन्हें वचन दे दिया और उसे ले जाने आये थे. मनोहर इसके लिए एकदम तैयार नहीं था, माँ रोने लगी थी, भाभी, मंजरी सब रोने लगे थे, उसके बड़े भाई भी तैयार नहीं थे लेकिन बाद में जब पिताजी ने समझाया तो सबको बात माननी पड़ी. बाबूजी ने यह वचन सिर्फ़ भावुकता में बह कर नहीं दिया था. उनके पास इसके सिवा कोई चारा नहीं था. ठाकुर साहब की बात न मानने का परिणाम मनोहर की गिरफ्तारी से ज़्यादा भयंकर होता. जेल जाने से तो सिर्फ़ मनोहर को तकलीफ़ होनी थी, और उसे छुड़ा लेने का ठाकुर साहब वचन भी दे रहे थे लेकिन यदि वह तैयार नहीं होता तो इसका मतलब होता ठाकुर साहब से, सभी राजपूतों से दुश्मनी मोल लेना जो कि उसके खानदान की तबाही का कारण बनता. मनोहर को बात माननी पड़ी. जाते वक़्त वह पांच मिनट के लिए मंजरी से मिल पाया जो सिर्फ़ रोये जा रही थी, कैसे भी उसे रुक जाने की याचना कर रही थी पर अब कोई विकल्प नहीं था. उसने ठाकुर साहब के वचन पर भरोसा करने के लिए कहा. उसने कहा कि सर्वेश बाबू उसे मानते हैं इसलिए वह भी उसे ज़रूर छुड़ा लेंगे. सर्वेश बाबू पर उसे भरोसा था क्योंकि वे उससे कभी-कभार हंसी ठिठोली कर लिया करते थे. जब शादी हुई और वह मंजरी को आशीर्वाद दिलवाने कोठी ठाकुर साहब के घर ले गया था तो सर्वेश बाबू ने मंजरी को देखकर ख़ुश होते हुए कहा था – “मनोहर, तुमने बड़ी सुंदर लुगाई पाई है, तुम्हारी जिंदगी तो संवर गई.” सर्वेश बाबू ने उससे कभी दुत्कार कर बात नहीं की थी और अब तो वह उनके लिए ही जेल जा रहा था तो वे उसे ज़रूर बचायेंगे, स्वयं को यह समझाते हुए मनोहर अपने बाबूजी और बड़े भाई के साथ घर से निकल गया.
पर यह तो सिर्फ़ तकलीफ़ की शुरुआत थी. वर्ष बीतते गये और वह जेल में ही रहा. ठाकुर साहब ने इतना अहसान किया कि उसकी फाँसी की सज़ा को हाईकोर्ट से उम्रकैद में बदलवा दिया. एक साल तक मंजरी भी आती रही मिलने उसके बाद जब तक जिन्दा रहे सिर्फ़ उसके पिता और भाई आते रहे. मंजरी के बारे में पूछने पर भी कोई कुछ नहीं बताता. उसके गाँव के या आसपास के आते रहने वाले कैदियों से उसे कई तरह की बातें मालूम होती रही. कुछ ने कहा कि मंजरी ठाकुर साहब के घर पर ही खाना-बर्तन-पोंछा का काम करने लगी थी. कुछ ने कहा कि सर्वेश बाबू के बच्चे की माँ बनने वाली थी कि मौत हो गई. कुछ ने कहा कि सर्वेश बाबू ने उसे शहर में बेच दिया. तो कुछ ने कहा कि मंजरी ने उसे बचाने के लिये ही सर्वेश बाबू की रखैल बनना मंजूर कर लिया और उसे सर्वेश बाबू ने शहर में रखा हुआ है. पर धीरे-धीरे मनोहर की इन बातों में दिलचस्पी ख़त्म हो गई. उसे बस अपना अपराध पता था कि वह अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर पाया, अपना पतिधर्म नहीं निभा पाया. बची डोर के नाम पर उसके मन में सिर्फ़ यही था कि मंजरी मरी न हो और जहाँ हो उसे भूल चुकी हो, ख़ुश हो.
राजपूत टोला के पहले ही मनोहर रिक्शा से उतर गया और पैदल गाँव की तरफ़ बढ़ने लगा. वह जानता था कि उसे कोई नहीं पहचानेगा फ़िर भी वह अपने चेहरे को इस तरह गमछे से ढके हुए था कि उसे कोई भूल से भी न पहचान पाये. राजपूतों के गाँव की ज़्यादातर कोठियाँ पुरानी ही थीं, वही भव्यता. सड़क किनारे दो-तीन मंज़िला वाले कुछ नये मकान भी बन गये थे पर गाँव की बसावट मोटे तौर पर पहले वाली ही थी. मुख्य सड़क से जो मोड़ सर्वेश बाबू के घर के तरफ़ मुड़ता है उसकी इच्छा हुई कि उस तरफ़ एक बार देखे, सड़क से ही उनका घर दिख जाता है लेकिन वह रुका नहीं, बिना रुके आगे बढ़ता गया. राजपूत टोला पार कर कुछ दूर सड़क की दोनों तरफ़ अब भी सिर्फ़ खाली खेत ही थे. लेकिन उसके बाद का नज़ारा बदला हुआ था. यादवों, कुर्मियों और कोइरियों के टोलों में काफ़ी बदलाव आया था. तब की तरह अब वहाँ कोई भी कच्चा मकान नहीं था. हर तरफ़ सिर्फ़ पक्के मकान थे. एक मंज़िले, दो मंज़िले. भले ही राजपूत टोला के तीन-चार मंज़िले मकानों की तरह ये भव्य नहीं थे लेकिन थे सभी नये. तब के इक्का-दुक्का मकानों को छोड़कर सारे मकान बदल चुके थे.
जब वह अपनी कहार टोली पहुंचा तो वहाँ भी उसे कुछ बदलाव नज़र आये. अब वहाँ झोपड़ियाँ नहीं थी. ज़्यादातर मकान खपरैल थे. एक मकान तो पक्का भी था भले ही वह एकदम छोटा हो. उसका घर भी अब झोपड़ी से खपरैल में बदल चुका था.
सिमरिया गाँव की कहार टोली में रहते-रहते तीन महीने में ही मनोहर को समझ में आ गया कि अब यह वह गाँव अब नहीं रहा जिसे छोड़कर वह गया था. अब सबकुछ बदल चुका था. जातियों में बँटे टोले तो अब भी थे लेकिन अब उसमें बहने वाली हवाओं की दिशा और दशा एकदम भिन्न थी, इस हद तक भिन्न कि मनोहर को कई बार लगता जैसे वह यह सब किसी सपने में देख रहा है, 35 साल में ही दुनिया इतनी कैसे बदल सकती है. अब यादव, कुर्मी, कोइरी सभी के पास एकड़ में ज़मीन थी, यहाँ तक कि कुछ कहारों ने भी अब ज़मीन खरीद रखी थी भले ही वह कट्ठो में ही हो जिसमें उसका अपना भतीजा शंभू भी शामिल था. यादव, कुर्मी, कोइरी टोली के हर तीसरे, चौथे घर में कोई न कोई बैंक या रेलवे में नौकरी ज़रूर कर रहा था. उसकी कहार टोली में भी कुछ मास्टर और रेलवे में खलासी हैं. यादव, कुर्मी, कोइरी टोली में अब कुछ इंजीनियर और डॉक्टर भी थे. यादव, कुर्मी, कोइरी टोली हो या कहार टोली ज़्यादातर माँ-बाप अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. उनमें से कई ने अपने बच्चों को शहर के स्कूलों में दाखिल करवा रखा था.
लेकिन सबसे बड़ी बात जो उसे अचंभे में डाले हुई थी, वह थी मात्र 35 सालों में हजारों साल की गुलामी और एक तरह की बंधुआ मज़दूरी का लगभग समाप्त हो जाना. अब कहार टोली में कोई भी परिवार राजपूत टोला के किसी एक परिवार से बंधा नहीं था. कहार टोली के जो लोग मज़दूरी करते थे वे गाँव से लेकर शहर तक मज़दूरी कर रहे थे बगैर किसी एक राजपूत खानदान से बंधे. बहुत सारे लोग अन्य छोटे-मोटे कामों के द्वारा भी गुज़ारा कर रहे थे जैसे किसी दुकान में काम, पेट्रोल पंप पर काम, किसी ठेकेदार के यहाँ काम. बहुत सारे लोग पंजाब, गुजरात भी चले गये. अब राजपूतों को अपने खेतों में काम करने वाले मजदूरों की कमी होने लगी थी. हालत यह थी कि मनोहर आये दिन राजपूतों को किसी न किसी कहार से उसके खेत का काम करने के लिये मनुहार करते देखता था. ये ऐसे दृश्य थे जिसकी मनोहर ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. तीन-चार कहारों के घर में मास्टरी की नौकरी करने वाले भी थे. अब कहार टोली थोड़ा-थोड़ा 35 साल पहले के यादव टोली, कुर्मी टोली, कोइरी टोली जैसा दिखने लगा था.
मनोहर सुखद आश्चर्य से भर जाता जब उसे ठाकुरों के बच्चे कुर्मी, कोइरी, यादव और कहारों के बच्चों के साथ घूमते, खेलते दिख जाते. शाम को क्रिकेट, फुटबॉल, कबड्डी खेलने वाले बच्चों में कोई जाति बंधन नहीं था. सब एक साथ मिलकर खेलते थे. एक साथ घूमते थे. ऊपरी तौर पर कहीं भी छुआछूत का नामोनिशान नहीं था. यह सब कैसे हुआ मनोहर समझ नहीं पा रहा था.
यह सबकुछ अच्छा-अच्छा था, इतना कि उसे ख़ुश हो जाना चाहिए था लेकिन वह ख़ुश नहीं था. वह क्यों ख़ुश नहीं था? क्या इसलिए कि वह सिमरिया में अब ख़ुद को बिल्कुल अकेला महसूस करता था? उसे जानने वाला अब कोई नहीं था. उसका समय घर से मन्दिर, खेल के मैदान से चाय की दुकान तक में बीत जाता था. वह राजपूत टोला नहीं गया था और उसके लिए वहाँ जा कर देखने लायक कुछ था भी नहीं. राजपूत टोला के ज़्यादातर लोगों ने खेती-बाड़ी छोड़कर विभिन्न व्यवसायों को अपना लिया था. ज़्यादातर लोग कलकत्ता, मुम्बई, दिल्ली जा कर बस गये थे. सर्वेश बाबू भी दिल्ली चले गये. वे होते भी तो वह शायद ही मिलने जाता. मनोहर भले ही अवांछित था पर उसे अपने घर में रहने की जगह मिल गई थी, समय पर खाना मिल जाता था, भतीजा शंभू उसकी इज़्ज़त भी करता था. धीरे-धीरे कुछ लोग उसे शंभू के चाचा के रूप में जानने लगे थे, कोई मनोहर काका बोलता तो कोई चाचा तो कोई दादा. परन्तु वह सबके लिए एक अनजाने की तरह था. वह चेहरों को टटोलता और चेहरे उसे टटोलते.
35 साल पूर्व, दोस्तों के नाम पर सुखिया और राम खेलावन थे. जब गाँव आया तो पता चला सुखिया मज़दूरी करने पंजाब चला गया और राम खेलावन इस दुनिया में रहा नहीं. सुखिया की शादी में वह शामिल हो चुका था पर तब उसके बाल-बच्चे नहीं थे. मनोहर अब जब उसके घर गया तो उसकी पत्नी और उसकी ब्याहता बेटी एवं इकलौती नातिन थी. मनोहर ने जब अपना नाम बताया तो सुखिया की पत्नी उसे तुरंत पहचान गई. अब वह यह समझ नहीं पाया कि उसने उसे तब की याद के कारण पहचाना या इन वर्षों में सुखिया द्वारा या कहार टोली में उसे लेकर हुई चर्चाओं के कारण. सुखिया की पत्नी ने बताया कि सुखिया दो साल में एक बार घर आता है लेकिन इस बीच बराबर पैसे भेजता रहता है. पैसे पहले मनीऑर्डर से आते थे पर अब कस्बे में बैंक अकाउंट खुल गया है तो उसकी पत्नी वहीँ से जाकर पैसे निकाल लेती है. छः महीने पहले ही सुखिया पंजाब गया है तो अब डेढ़ साल बाद ही लौटेगा.
राम खिलावन उन तीनों दोस्तों में सबसे बलिष्ठ था, इतना कि वह मनोहर और सुखिया के पिलपिले शरीर को लेकर हमेशा यह कह कर चिढ़ाता रहता था कि – “तुमलोग ऐसे ही रहे तो जल्दी ही टें बोल जाओगे और तुम्हारे बीबी बच्चों का लालन-पालन मुझे ही करना पड़ेगा.” लेकिन ऊपरवाले को कुछ और ही मंजूर था, अपने बलिष्ठ शरीर और कहारों के पहलवान के नाम से मशहूर राम खिलावन बीस वर्ष पहले ही दुनिया से चला गया. उसके जाने के दो वर्ष बाद ही उसकी पत्नी भी गुजर गई. राम खिलावन के दोनों बच्चे जिन्हें मनोहर गोद में खिला चुका था, कलकत्ता मज़दूरी करने चले गये और पिछले पांच सालों से वे लोग कहार टोली नहीं आये. राम खिलावन की इस दुःखभरी कहानी से ज़्यादा तकलीफ़ मनोहर को उसकी मौत के कारण से हुई. बीस साल पहले विधानसभा चुनाव के दिन जब यादव, कुर्मी और कोईरी टोली के लोग राजपूत टोला में मौजूद बूथ पर वोट डालने पहुंचे तो उन्हें खदेड़ने के लिए राम खिलावन अपने मालिक ठाकुर सिन्धेश्वर सिंह की तरफ़ से गोली चला रहा था, उस दिन दोनों तरफ़ से भीषण गोलीबारी हुई और उसमें राम खिलावन सहित चार लोग मारे गये जिसमें राम खिलावन के आलावा दो यादव और एक कुर्मी थे. मनोहर के लिए यह पूरा घटनाक्रम समझ के परे था. 35 साल पहले तक तो कभी किसी चुनाव में कोई विवाद हुआ ही नहीं. विवाद तो बहुत दूर की बात राजपूत टोला के बूथ पर सिर्फ़ राजपूत लोग ही वोट डालते थे. वोट से राजपूतों के अलावा कभी किसी पिछड़ी जाति को कोई वास्ता रहा ही नहीं. कब चुनाव आता और कब चला जाता पता नहीं चलता. हां मनोहर, राम खिलावन और सुखिया को पता रहता था क्योंकि जो साहब लोग चुनाव कराने बक्सा, पेटी लेकर राजपूत टोला के प्राइमरी स्कूल में आते थे उनकी सेवा-भगत करने की ज़िम्मेवारी इन पर ही होती. मालिकों के घर से खाना पहुँचाने से लेकर नहाने के इंतज़ाम तक. मनोहर समझ नहीं पा रहा था कि एकाएक पिछड़ों को वोट देने के लिए किसने उकसाया और राम खिलावन ने बंदूक चलाना कब सीख लिया? बंदूक, बम तो राजपूतों की चीज़ थी, वह पिछड़ों तक कैसे पहुँच गई जो उस दिन दोनों तरफ़ से गोलीबारी हुई. और जब पिछड़े इतने हिम्मत वाले हो ही गये तो राम खिलावन को उन्होंने राजपूतों की गुलामी से क्यों नहीं मुक्त कराया जो वह उनकी तरफ़ से गोली खाकर मारा गया? अब तो कुर्मी टोली में प्राइमरी स्कूल खुल गया है और अब पिछड़ों के वोट वहीँ पड़ते हैं. राजपूत टोला का प्राइमरी स्कूल अब हाई स्कूल में बदल चूका है जहाँ अब सिर्फ़ राजपूत वोट डालते हैं.
सुखिया, राम खिलावन के न होने से अब कहार टोली मनोहर के लिए भी पराया सा हो गया. तब के बड़े, बूढ़े पहले ही इस दुनिया से जा चुके थे और हमउम्र साथी थे नहीं. कहार टोली के पीपल के पेड़ के नीचे की चाय की दुकान पर वह सुबह चाय पीने जाता तो उससे बात करने वाला कोई नहीं होता. इक्का-दुक्का लोग उसके भतीजे शंभू के कारण उसे जानते तो कभी कभार कुछ बोल देते या पूछ लेते. लेकिन उसकी पहचान उनके बीच भी उसके 35 साल जेल में रहने की कहानी तक ही सीमित थी. उसने इतना बड़ा त्याग किया था अपने परिवार के लिए लेकिन उसके प्रति सबके चेहरे पर एक उपहास, तिरस्कार का भाव होता जिसका कारण वह कभी समझ नहीं पाया.
लेकिन मनोहर इससे परेशान नहीं था. जिंदगी की साँझ में ये बातें उसके लिए मायने नहीं रखती थीं. मनोहर की चिंता कुछ भिन्न थी.
कोईरी टोली का काली मन्दिर, यादव टोली की चाय की दुकान और राजपूत टोला पिछड़ों की टोली की सीमा रेखा बनी राजपूतों द्वारा छोड़ी गई परती ज़मीन जो अब खेल के मैदान में तब्दील हो गई थी के बीच घूमते-घूमते मनोहर यह जान पाया था कि कहार टोली के नौजवान लड़के यादव, कुर्मी और कोइरी के हमउम्रों से ज़्यादा राजपूत नौजवानों के करीब थे. मनोहर इसका कारण समझ नहीं पा रहा था. और बात सिर्फ़ युवाओं तक सीमित नहीं थी. कहार टोली के आमलोग भी दूसरी पिछड़ी जाति के लोगों को नापसंद करते थे. 35 वर्ष पहले यह माहौल नहीं था. तब भले ही प्रतिरोध की क्षमता कम हो लेकिन तमाम पिछड़ी जातियों में एक एका सा था. उउनकी तकलीफ़ें चूँकि साझा थीं, इसीलिए उसे आपस में बाँटने की भी ख्वाहिश भी साझा ही थी. पर अब वैसा कुछ भी नहीं था. तनाव की एक रेखा सी खिंच चुकी थी जिसके एक तरफ़ यादव, कुर्मी और कोइरी जातियां थीं तो दूसरी तरफ़ कहार.
मनोहर इसका कारण जानना चाहता था लेकिन कैसे यह वह नहीं जानता था. उसकी बातचीत काफ़ी कम लोगों से होती थी. हमउम्र बड़े बूढों से ज़्यादा सहज वह नवयुवकों के साथ था और इसका एक कारण शंभू का इंटर पास बेटा मंजय भी था. मंजय ‘दादा-दादा’ कह कर उससे बात करता रहता और खेल के मैदान में भी अपने साथ ले जाता. वहीँ मनोहर दूसरे बच्चों से घुलमिल पाया था. क्रिकेट खेलने के दौरान हुए एक विवाद और उसके बाद हुए बच्चों की मारपीट ने मनोहर को उन बातों से एक हद तक अवगत करवाया जिससे वह अनजान था.
बात मामूली थी और जितना मनोहर समझ पाया था ज़्यादा ग़लती एक राजपूत लड़के की थी लेकिन जब बात बढ़ गई तो राजपूत और कहार इकट्ठे हो गये और उन्होंने यादव, कुर्मी और कोईरी लड़कों की पिटाई कर दी. यह घटनाक्रम उसी विभाजन की परिणति थी जिसका कारण मनोहर समझ नहीं पा रहा था. जब सभी चले गये और वह कहार टोली के बच्चों के साथ घर लौटने लगा और उसने उनकी बातों में पिछड़ी जातियों के प्रति ग़ुस्सा देखा तो इसे मौका समझते हुए पहली बार मनोहर ने इस संबंध में बात की.
“आख़िर तुम लोग बैकवर्ड हो कर भी बैकवर्ड के इतना खिलाफ़ क्यों हो”- मनोहर ने सीधे सपाट शब्दों में उनसे प्रश्न किया.
“बैकवर्ड अब सिर्फ़ हमलोग बचे हैं दादा, बाकी सब फ़ॉरवर्ड हो गये, आप इन अहीरों, महतो और कुशवाहा को बैकवर्ड समझने की भूल न करो, यही लोग अब असली फ़ॉरवर्ड हैं”- जवाब मंजय ने ही दिया और वह भी साफ़-साफ़, बगैर लाग-लपेट.
इस जवाब ने मनोहर के सामने कुछ खुलासा कर दिया था लेकिन वह और भी स्पष्टता चाहता था, उसने फ़िर पूछा- “ये लोग फ़ॉरवर्ड कैसे हो सकते हैं, ये लोग हमलोगों की तरह ही बैकवर्ड हैं?”
“बैकवर्ड होने से क्या होता है दादा? आप इन यादवों, कुर्मियों और कोइरियों की हरकत देखो. आये दिन हमें सताते रहते हैं. संजीत के पिताजी की चाय की दुकान पर ये लोग चाय पीते हैं और पैसा भी नहीं देते. गोलू के दादाजी के सब्जी के खेत से यही लोग मुफ्तखोरी करते हैं. इनके लौंडे हमें पीट भी देते हैं और इनके यहाँ शिकायत करने जाओ तो इनके माँ-बाप मारने को दौड़ते हैं. राजपूत न हो तो ये लोग हमें घर में घुसकर मारें. सीधे मुँह बात तक नहीं करते, दुत्कारना, बेइज़्ज़त करना इनके लिए आम बात है. ऐसी कोई हरकत राजपूत लोग तो नहीं करते, आप इतने दिन से हो आपने देखा है किसी राजपूत को यह सब करते हुए? फ़िर हम किसे अपनी तरह बैकवर्ड समझें और किसे फ़ॉरवर्ड? इनके सामने हमारे बाप-दादा की जुबान डर से नहीं खुलती लेकिन हमलोग अब नहीं डरते. और कब तक डरें और क्यों डरे? हमारे शरीर का खून भी उनकी तरह लाल ही है”- एक ही साँस में सारी कहानी बयां करने वाला मंजय से दो साल बड़ा उसका दोस्त लखन था.
अब रहस्य के परदे उठते जा रहे थे, मनोहर अचंभे में था. वह अब जा कर बहुत कुछ समझ पा रहा था लेकिन उसने और परतों को उधेड़ने की कोशिश की.
“यह सब वाकई बुरा है, इन्हें ऐसा नहीं करना चाहिये. लेकिन सदियों से इन ऊँची जाति के लोगों ने हमें इससे हज़ार गुना ज़्यादा सताया है. हमें अछूत समझते रहे, हमारे पढने-लिखने, मन्दिर तक जाने पर रोक लगा कर रखे रहे. हमारी बहू-बेटियों को भी कुछ नहीं समझा. यदि अंग्रेज नहीं आते और सभी के लिए एक तरह का कानून नहीं बनाते तो ये लोग तो हमें आगे भी सदियों तक गुलाम बना कर ही रखते. आज़ादी के बाद भी भले ही सरकार ने इनसे जमींदारी छीन ली लेकिन इनका सामंती राज चलता ही रहा, वह सब हमने भोगा है. यादव, कुर्मी और कोईरी जाति के लोग ज़्यादती करते हैं तो यह भी ग़लत है लेकिन जब ऊँची जातियों का अत्याचार चरम पर था तो जितना हो सका इन्होंने ही हमारी रक्षा की है इसलिए हमें इन्हें अपना दुश्मन नहीं समझना चाहिये, ये हमारे भाई हैं ”- मनोहर उन्हें समझने के साथ-साथ समझाने की भी कोशिश कर रहा था.
“काका, जो आप बता रहे वो सब हमने नहीं देखा. आज ऊँची जाति के लोग जितना तंग नहीं करते हैं हमें उससे ज़्यादा ये पिछड़ी जाति के लोग तंग करते हैं. आपने सामंत राज देखा होगा पर हमलोग नवसामंतों का राज देख रहे हैं. एक बात और काका, दूसरों का दिया दुःख तो हम फ़िर भी सह लेते हैं लेकिन जब अपने दुःख देते हैं तो सहना मुश्किल हो जाता है ”- कहार टोली में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने वाले राजेश के इस जवाब के बाद मनोहर के पास अब समझने के लिए कुछ भी नहीं बच गया. वह सब समझ गया और पहले से ज़्यादा निराश हो गया.
लेकिन उसकी निराशा अभी और बढ़ने वाली थी. वह जिन बातों से निराश था वह अब भी उसे सुधर जाने वाली, संभल जाने वाली बात लगती थी क्योंकि उसे यह पिछड़ों में हो रहे विकास और उन्हें मिल रहे राजनीतिक सत्ता के संक्रमण काल के दौरान होने वाले कुछ कठिनाइयों, तात्कालिक भ्रम से ज़्यादा कुछ नहीं लग रहा था. उसे लगता था कि यह सब जल्दी ठीक हो जायेगा और पिछड़े समाज के लोग आपसी तनाव को भूलकर पुनः एक साथ ही होंगे. अगड़ों के व्यवहार में आये बदलाव पर उसे बहुत भरोसा नहीं हो पा रहा था, हालाँकि अगड़ी जातियों का किसी भी कारण से पिछड़ों के साथ इंसानों की तरह व्यवहार करते देखना उसे सुकून देता था लेकिन उन्हें वह सशंकित नजरों से ही देख रहा था. और जल्दी ही उसकी शंका सही साबित हो गई.
उसे सिमरिया पहुँचे अभी एक साल भी नहीं हुआ था, वह अपने ही घर और समाज में ठीक से शामिल भी नहीं हो पाया था, यह बदला समाज उसे परखने में लगा था और वह इस समाज को पढने में कि तभी एक नया बवंडर खड़ा हो गया.
रामनवमी के दस दिन पहले राजपूत टोला के शिव मंदिर पर एक बैठक बुलाई गई जिसमें अगड़े, पिछड़े सभी जाति के लोग शामिल हुए. वहाँ रामनवमी का आयोजन भव्य तरीके से करने का निर्णय किया गया जिसके तहत उस मन्दिर से एक विशाल जुलूस निकालकर आस-पास के 10 किलोमीटर की परिधि में आने वाले सभी मन्दिरों पर जल अर्पण करना था. जुलूस के साथ 108 महिलाओं को जल से भरा घड़ा लेकर चलना था. इन महिलाओं को एक ही रंग की साड़ी देने का निर्णय हुआ जिसे पहनकर ये महिलायें जुलूस के साथ चलती. और यह सौभाग्य सिर्फ़ पिछड़ी जाति की महिलाओं को देने का भी निर्णय हुआ. जुलूस के मध्य में बैंड बाजे वालों को रहना था. और जुलूस के आगे 108 युवा लड़कों को हाथों में तलवार लेकर, जय श्री राम का नारा लगाते हुए जाना था. चूँकि राजपूत टोला में ज़्यादा युवा नहीं थे इसलिए 108 में 100 पिछड़ी जाति के ही युवा चयनित हुए. यह जुलूस सुबह नौ बजे शिव मन्दिर से प्रारंभ हो कर विभिन्न मंदिरों का भ्रमण करते हुए वापस उसी शिव मंदिर पर समाप्त होना था, जहाँ रात में भजन-कीर्तन और महाभोज की व्यवस्था की गई थी.
इस आयोजन में होने वाला पूरा खर्च राजपूतों द्वारा ही किया जाने वाला था लेकिन आयोजन समिति में सभी जातियों को जगह दी गई थी. कुल मिलाकर यह एक आदर्श समाज द्वारा सारे भेदभाव भूल कर किया जाने वाला धार्मिक आयोजन दिख रहा था. और यह समाज अब इस हद तक आदर्श हो चुका है यह बात मनोहर को स्वीकार्य नहीं थी. उस बैठक के लिए जेल से आने के बाद पहली बार वह राजपूत टोला गया था. इस बार भी उसने सर्वेश बाबू के घर की तरफ़ झाँका तक नहीं. इस बैठक के बाद यादव, कुर्मी, कोईरी, कहार सभी जाति के लोग ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर लौट आये. लेकिन मनोहर ख़ुश नहीं था. उसे कहीं कुछ बहुत ग़लत होता दिख रहा था, लेकिन उस वक़्त उसे पता नहीं था कि वह ग़लत क्या है. कुछ ग़लत होने का प्रमाण उसे तब मिला जब अगले दिन कहार टोली के पास के खेल के मैदान में युवाओं की एक और गुप्त बैठक हुई. इस बैठक का नेतृत्व भी राजपूत टोला के ही लड़के कर रहे थे एवं उसमें तीन-चार यादव, कुर्मी व् कोईरी टोली के लड़कों को छोड़कर बाकी सभी कहार टोली के लड़के थे जिनकी संख्या तीस से ज़्यादा थी. इस बैठक में राजपूत टोला के लड़कों ने जुलूस का जो मार्ग बताया वह सिमरिया से सटे इस्माइलपुर के मुसलमानों की घनी बस्ती से हो कर गुज़रने वाला था. जुलूस के दौरान जय श्री राम के नारों के साथ पाकिस्तान विरोधी नारा भी लगना था. कई और भी नारे लगने थे जो परोक्ष रूप से मुसलमानों को गाली लगे, उन्हें उकसाये और यदि कोई मुसलमान विरोध करे तो मुसलमानों को घर में घुसकर मारा जा सके इसका पूरा इंतज़ाम भी रखना था. मुसलमानों की बहू-बेटियों को बिल्कुल भी नहीं बख्शना था. और यदि वह जुलूस इसके बाद भी बिना किसी प्रतिरोध के, बिना किसी विवाद के पूरा हो गया, मुसलमानों को मारने का बहाना न मिला तो जुलूस के शिव मंदिर वापस पहुँचने के पहले ही वहाँ ऐसा इंतज़ाम कर देना था जिसे देखकर भीड़ उत्तेजित हो जाये और मुसलमानों की बस्ती में घुसकर उन्हें मारे. वह इंतज़ाम था एक गाय को काटकर उसे शिव मंदिर में फ़ेंक देना. गाय के टुकड़ों को फ़ेंकने का मौका जुलूस के शिव मंदिर से निकलने के एक घंटे बाद अर्थात 10 बजे मिलने वाला था जब वहाँ पूरी तरह सन्नाटा होने की संभावना थी और यह अति महत्वपूर्ण ज़िम्मेवारी मनोहर के भतीजे मंजय और उसके अन्य दो साथियों को मिली थी. यह प्रमुख ज़िम्मेवारी मिलने से मंजय अति उत्साहित भी था.
यह सब सुनकर मनोहर सकते में था. वे लोग यह सारी चर्चा मनोहर के सामने बड़ी सहजता से कर गये क्योंकि मनोहर के व्यक्तित्व पर हर वक़्त छाई रहने वाली चुप्पी से उन्हें कोई खतरा नहीं दिखा था. मनोहर का हर वक़्त निर्विकार रहना उन्हें गोपनीयता को लेकर निश्चिन्त कर रहा था. लेकिन मनोहर जेल से आने के बाद पहली बार इतना ज़्यादा व्यथित और व्यग्र था परन्तु उसने अपने चेहरे की चुप्पी और निर्विकारता को यथावत रखा. पर उसकी यह चुप्पी बाकी सभी के जाने के बाद कहार टोली के लड़कों के सामने टूट गई. उसने अपनी बुद्धि और समझ से पूरा प्रयास किया कि ये लोग किस हद तक जुल्म और अपराध करने वाले हैं यह महसूस करें. उसके पास जितनी जानकारियां थी, जितने तर्क थे, उसने सब इस्तेमाल किए लेकिन वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे. उनके अनुसार मुसलमान उनके सबसे बड़े दुश्मन थे जिन्हें सबक सिखाने की सख्त आवश्यकता थी. ताज्जुब की बात यह थी कि जिन यादवों, कुर्मियों, कोइरियों से ये लोग चिढ़ते थे अपने इस मुहिम में उन्हें शामिल करने पर भी इन्हें कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि यह हिन्दू धर्म की रक्षा की बात थी, और सभी हिंदुओं का इस हेतु एक होना आवश्यक था अन्यथा पाकिस्तान परस्त ये मुसलमान अपनी ताकत, जनसंख्या जिस तेजी से बढ़ा रहे हैं यदि इन्हें अब नहीं रोका गया तो जल्दी ही हिंदुस्तान पर इनका कब्ज़ा हो जायेगा, हिंदुस्तान पाकिस्तान की तरह मुस्लिम राष्ट्र बन जायेगा और मुगलकाल की तरह हिन्दुओं पर फ़िर से जुल्म-सितम होगा. मनोहर ने सभी तर्क दिए, यह कि हज़ार साल से हिंदू-मुसलमान एक साथ रह रहे हैं जब मुगलों ने हिन्दुओं को ख़त्म नहीं किया तो अब कौन करेगा, यह भी कि मुगलों से ज़्यादा तो ऊँची जातियों ने पिछड़ों को सताया है पर इतिहास का हिसाब वर्तमान में नहीं हो सकता और ऐसा करने का प्रयास इस मुल्क को ही नष्ट कर देगा. और चूँकि अब मनोहर पूरा खेल समझ गया था इसलिए उसने यह भी कहा कि ऊँची जातियों की सामाजिक सत्ता को खोता देख, पिछड़ों में बँटता देख उसे कायम रखने की मंशा रखने वाले कुछ विकृत मानसिकता के लोग, यह जानकर कि वे अब पहले की तरह पिछड़ों पर प्रत्यक्ष शासन नहीं कर सकते इसलिए इनकी बढ़ती ताकत को रोकने के लिए हिंदू धर्म की एकता के नाम पर पिछड़ों को मुसलमानों से लड़ा रहे हैं ताकि पिछड़ों की यह पीढ़ी और आने वाली नस्लें इसी लड़ाई में नष्ट हो जाएं.
मनोहर अब बहुत बेचैन था, उसने शंभू से भी बात की लेकिन उसने भी इन बातों को नज़रअंदाज़ कर दिया. जैसे-जैसे रामनवमी का दिन नजदीक आ रहा था मनोहर की घबराहट, चिंता, छटपटाहट बढ़ने लगी. वह किसी भी तरह मंजय को, कहार टोली को, पिछड़ों को, हिन्दुओं को कलंकित होने से बचाना चाह रहा था. ऐसा करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार था और उसने हद पार की भी.
मनोहर को पता था कि गाय को अहले सुबह काटकर किस जगह पर छुपा कर रखा जायेगा जिसे जुलूस के निकलने के पश्चात मंजय और उसके साथी दस बजे मंदिर पर फ़ेंकने वाले थे. रामनवमी के दिन उसी जगह से गाय के मांस का टुकड़ा ले कर मनोहर ठीक नौ बजे जब शिव मंदिर पहुँच गया और सभी के सामने उसने उस टुकड़े को मंदिर पर फेंका. उसके बाद जो हुआ उस हर बात के लिए मनोहर पहले से तैयार था. उसकी पिटाई हुई, पुलिस को बुलाया गया, वह गिरफ़्तार हो गया और चूँकि मंदिर अपवित्र हो गया तो जुलूस भी रद्द हो गया. उसने पुलिस को सबकुछ बता दिया कि आख़िर उसने ऐसा क्यों किया, उसने पूरी साज़िश को पूरे समाज के सामने रख दिया लेकिन चूँकि उसने साज़िशकर्ता या उसमें सक्रियता से शामिल अपने भतीजे मंजय या किसी अन्य लड़के का नाम नहीं लिया इसीलिए आधे लोगों ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया और पुलिस ने भी उसे गिरफ़्तार कर लिया.
लेकिन मनोहर उस घटना को रोक देने के कारण, आधे लोगों को साज़िश समझा पाने के कारण, समाज को कुछ जगा पाने के कारण, अपने भतीजे मंजय को बचा लेने के कारण असीम संतोष और एक जीत का अनुभव कर रहा था. 36 साल बाद एक बार फ़िर से वह अपराधी बनकर पुलिस की गाड़ी में बैठा था, एक बार फ़िर वह जेल जा रहा था पर इस बार उसकी आँखों में रात का घुप्प अंधेरा नहीं था बल्कि दिन की चमकीली रौशनी थी और उसके दिल में उफान मारती आज़ादी की ललक थी, हजारों साल की गुलामी से आज़ादी. पुलिस की गाड़ी जब सर्वेश बाबू के घर के मोड़ के पास पहुंची तो उसने 36 साल बाद पहली बार उनके घर को भरपूर निगाह से देखा, देखता रहा और उसके होंठों पर मुस्कान तैर गई, जीत की मुस्कान.