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अनाम - प्रभात प्रणीत
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अनाम

अनाम 

“अरे नाम तो बताओ, तुम्हें इससे पहले तो कभी देखा नहीं”- अब जब तीसरी बार उसके कानों में यह आवाज़ गूंजी तो जैसे वह अपनी चिरनिद्रा से बाहर निकला लेकिन उसके होंठ अभी भी सिले थे. वह अभी तक अपने उत्तर ढूंढ नहीं पाया था, लेकिन वह यह समझ गया था कि अब उसका वहाँ और खड़े रहना संभव नहीं. अब तक चुप रहकर वह साहब के गेस्ट का पहले ही अपमान कर चुका था और यदि वह अब भी रुकेगा तो इस अपमान की गहराई बढ़ती जाएगी. वह सीधे पीछे मुड़ा और सीढ़ियों की तरफ़ भागा, चंद सेकेंड में लगभग हाँफ़ते हुए वह छत पर पहुँच गया.

छत के अलावा ऐसी कोई जगह ही नहीं थी जहाँ वह कुछ देर के लिये अकेला हो कर साँसें ले सकता था. जहाँ वह अपनी ग़लती के लिये ख़ुद को जी भर कर कोस सकता था. उसके माथे पर पसीने की बूंदे तैर रही थीं. पसीना तो मानो उसके पूरे शरीर को भिगो रही थी. ठंड के मौसम में इस तरह पसीने से भीगने का यह उसका पहला अनुभव था, उसने अपने माथा, गले को छू कर देखा. वे भीगे हुए थे. तभी हवा का हल्का झोंका उसके शरीर को छूते हुए गुज़रा, और उसे पसीने से भीगे अपने शरीर में एक सिहरन का अहसास हुआ. ठंड में पसीने से भीगना और उस पसीने पर हवा की छुअन से उत्पन्न सिहरन सब उसके लिए नया अनुभव था, यह सोचकर उसके चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट तैर गई. लेकिन उसे पता था अभी उसके ख़ुद को कोसने का वक़्त है, मुस्कुराने का नहीं. अब उसके चेहरे की मुस्कुराहट गायब हो गई और वह फ़िर से संजीदा हो गया.

उसने अपनी आँखें अपने सामने से गुजर रही सड़क की तरफ़ मोड़ी. इस सड़क पर तो वैसे भी दिन भर गाड़ियों की आवाजाही लगी रहती है लेकिन शाम को यह काफ़ी बढ़ जाती है. इतनी ज़्यादा कि हर दूसरे दिन यहाँ जाम लगा होता है. पर उसे यह जाम और उससे होने वाला शोर परेशान नहीं करते, उसे यह जायज ही लगता है. सभी को इस वक़्त अपने घर लौटना होता है, अपने अपनों के पास जाना होता है, जल्दी पहुँचने की हड़बड़ाहट होती है. ठीक ही तो है, जिनका अपना घर होगा, अपने लोग होंगे तो वहाँ जल्दी पहुँचने की बेचैनी भी तो होगी. वह तो जब भी अपने शहर जाने की भी बात सोचता है तो एक अजीब सी हलचल अपने अंदर महसूस करता है. जबकि वहाँ उसका कौन है, बूढ़ा राम नरेश अब होगा भी या नहीं क्या पता? तब ही तो 80-85 बरस का दिखता था. रह गए उसके साथी सब, तो वे सब अब कहाँ होंगे उसे क्या पता? पता नहीं कहीं होंगे भी या नहीं? फ़िर भी उस शहर में कभी ख़ुद के होने की बात सोचकर ही उसके अंदर एक गुदगुदी सी होती है, ख़ुश होने का मन करने लगता है. फ़िर सड़क पर भागमभाग कर रहे लोगों को तो अपने घर, अपने अपनों के पास जाना है. इंसान की जिंदगी बँटी होती है, उनके हालात बँटे होते हैं लेकिन ख़ुशी और उसकी ललक तो सबकी एक समान है, उसमें तो कोई फर्क नहीं. 

लेकिन तभी उसे अहसास हुआ कि वह बेमतलब की बात सोचने में अपना वक़्त बर्बाद कर रहा है. अभी तो उसे कुछ देर पहले उससे पूछे गए सवाल का जवाब ढूंढना है. फ़िर वह उस बारे में सोचने लगा जिसकी अभी ज़रूरत थी. ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था. यह ठीक है कि वह इस साहब के यहाँ कल ही आया था लेकिन यह कोई पहली बार तो नहीं था. लगभग आठ साल से वह यह काम कर रहा है. बूढ़े राम नरेश की बात मानी जाए तो इस हिसाब से वह पन्द्रह साल का हो गया क्योंकि जब वहाँ से पहले पांडे साहब उसे अपने घर ले गए थे तो उनके सामने उसने उसकी उम्र सात साल बताई थी. तब से हर न्यू ईयर पर वह अपने उम्र में एक साल जोड़ लेता है. सौ तक की गिनती इसीलिए तो बूढ़े राम नरेश ने सिखाई थी. उसे भी उतना तक ही याद था लेकिन वह कहता था “मैं तो फ़िर भी सौ बरस तक जी जाऊंगा, पर तुम हराम के पिल्लों बहुत पहले ही टपक जाओगे, मेरी तरह अस्सी, पचासी की गिनती कभी नहीं गिन पाओगे, मैं तो शुरू से हट्टा-कट्टा था, मालिक लोगों की मार पिटाई का भी असर नहीं पड़ा पर तुम लोग तो पिलपिले हो, एक झटके में ही निबट जाओगे.” बेकार की बात बोलता था वह, पन्द्रह का तो हो गया, ऐसे करते-करते पचासी का भी हो ही जायेगा. लेकिन यदि आज वाली ग़लती दुहराई तब तो बहुत मुश्किल है. 

आठ साल में यह चौथे साहब हैं जिनके यहाँ उसे भेजा गया है. पहले के तीनों साहब ने पहले दिन ही उसे उसका नाम बता दिया था, उसे तुरंत याद भी हो जाता था, मजाल है कि आज के पहले कभी अपना नाम भूला हो. इंजीनियर पांडे साहब ने उसका नाम शंकर रखा था वह ख़ुद को शंकर ही बोलता रहा जब तक वह उनके यहाँ रहा. उन्हें उसका गरीबन नाम पसंद जो नहीं आया था. लेकिन कुछ समय बाद वे विदेश चले गए तो उनके दोस्त फ्रांसिस साहब उसे अपने घर ले गये. अब उन्हें शंकर नाम पसंद नहीं था तो उन्होंने माइकल नाम दे दिया, तब वह ख़ुद को माइकल कहने लगा. लेकिन बस दो साल ही. दो साल बाद एकाएक वे गॉड के पास चले गए तो उनके पड़ोसी सिंह साहब उसे अपने साथ अमृतसर ले गये. उन्हें माइकल नाम पसंद नहीं था तो उन्होंने उसे मनजीत कहना शुरू किया, पाँच साल वह उनके साथ रहा, कभी भूल से भी वह अपना नाम नहीं भूला. ‘मनजीत, मनजीते’ पुकारते ही वह ‘जी साहब’ बोल पड़ता. कोई गेस्ट पूछता कि नाम क्या है तुम्हारा, वह झट से मनजीत बोल देता. पगड़ी भी बांधनी सीख ली थी उसने, हल्की दाढ़ी, मूँछ भी आ ही गई थी, धीरे-धीरे वह उन्हीं के घर का बच्चा दिखने लगा था. उसे लगता था अब यह उसका आख़िरी नाम है, आख़िरी हुलिया. लेकिन नहीं, बूढ़ा राम नरेश ऐसे थोड़े न उसे मनहूस, हराम का पिल्ला बोलता था. कहता था कि “तुमलोगों के आने से मुंबई के इस सबसे पुराने अनाथालय की क़िस्मत ही फूट गई. पहले बहुत आराम था, लेकिन एक ही साल में पता नहीं कहाँ से दो सौ बच्चे आ गए, बस आराम हराम हो गया. सब के सब मनहूस हो, मेरा आराम खा गये.” 

ठीक ही कहता था वह बूढ़ा, मनहूस ही तो है वह. पाँच साल रहा वह अमृतसर, लगता था जैसे अब सिंह साहब के यहाँ ही जिंदगी कट जायेगी लेकिन फ़िर पता नहीं क्या हुआ कल उन्होंने इस नये खान साहब के यहाँ दिल्ली भेज दिया. खान साहब ने सबसे पहले तो पगड़ी उतरवाई, दाढ़ी, मूँछ साफ़ करवा दिए, चेहरा सफाचट हो गया. उसे अपना यह चेहरा बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. यह वह था जिसे वह ख़ुद जानता ही नहीं था, काफ़ी देर तक अपने ही अजनबी चेहरे से लड़ता रहा, भागता रहा, उससे छुपने के कोने ढूंढता रहा. फ़िर आज सुबह ही उन्होंने उसे एक नया नाम दिया और कहा जो भी पूछे ख़ुद का नाम यही बताना. यह नाम पहले के नामों से अलग जरूर था लेकिन उसने सुबह अच्छे से याद कर लिया था. उसने मन ही मन कई बार उस नाम को दुहरा कर पक्का कर लिया था कि भूल से भी उसके मुँह से मनजीत ना निकल जाये. लेकिन आज पता नहीं क्या हो गया. जैसे ही गेस्ट ने नाम पूछा उसके मुँह से मनजीत ही निकलने वाला था, उसने मुश्किल से ख़ुद को रोका. उसने नाम याद करने की कोशिश की तो उसे शंकर, माइकल के अलावा और कोई नाम याद ही नहीं आया. जब तीसरी बार उन्होंने पूछा तो उसके पास वहाँ से हटने के सिवा कोई चारा नहीं था. वह जानता था, आज उससे बड़ी ग़लती हो गई, खान साहब जानेंगे तो काफ़ी नाराज होंगे. लेकिन उसे तो अब भी अपना नया नाम याद नहीं आ रहा था, अपने दिमाग पर उसने जोर देकर देख लिया. वह अब क्या करे, उसे समझ ही नहीं आ रहा था. वह अपना नाम किसी से पूछ भी नहीं सकता. उस घर में और कोई है भी नहीं, अकेले खान साहब हैं और वह तो गेस्ट के पास होंगे. 

तभी उसे खान साहब की आवाज़ सुनाई दी, सीढ़ी के पास आ कर वह उसे पुकार रहे थे. वे जरूर उसका नाम पुकार रहे होंगे यह सोचते ही वह सीढ़ी की तरफ़ बढ़ा. अब उसे अपना नाम सुनाई दिया और तब झट से याद भी आ गया “अख़लाक”. वह मुस्कुराया और ख़ुश होते हुए नीचे की तरफ़ भागा. वह उत्साहित था, मानो उसकी साँसें उसे वापस मिल गई हों.

 

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