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'साथ-असाथ' पढ़ते हुए - प्रभात प्रणीत
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‘साथ-असाथ’ पढ़ते हुए

यह अब तक आवृत पड़ी किसी बड़ी भूमि को अनावृत करना है या फिर एक बिल्कुल ही नई भूमि का सृजन पर जो भी है वह अद्भुत हैI साहित्य में ऐसा रोज- रोज नहीं होता, कई बार तो ऐसा होने में वर्षों या दशकों लग जाते हैं I यह इससे पहले तो नहीं ही हुआ, यह अब ही हो रहा है और यह अंचित भाई कर रहे हैंI यदि आपको मेरे उपरोक्त कथन किसी भी कारण से अतिशयोक्ति लग रहे हैं तो विनम्र अनुरोध कर रहा हूँ एक बार “साथ-असाथ” की अविस्मरणीय यात्रा कर लीजिए, आप मेरी बातों से अक्षरशः सहमत होंगे I

कई दिनों बाद पटना लौट कर आया हूँ, जब तक यहां था “साथ-असाथ” हाथ में नहीं आ पाई थी, और यहां आते ही जब हाथ में आई तो फिर दूसरा कुछ और करने से पहले “साथ-असाथ” के यात्रा पर ही निकल गया I चौंकिए नहीं, यह किताब पूरी यात्रा ही है, तमाम संवेदनाओं और फिसलन के बीच, उम्र के बन्धनों और विद्रोह के बीच, मानवीय क्षमताओं और अक्षमताओं के बीच, तड़प और टिस के बीच, हंसी में बार-बार उघड़ आ रहे आंसू और दर्द के चरम पर विक्षिप्त हंसी के बीच, और इस यात्रा में आप खुद तय नहीं कर पायेंगे कि अपनी अर्धमूर्छा में आप कितना चमत्कृत हैं या कितना अचम्भित हैंI

भाषाओं की सीमा, गद्य और पद्य की विभाजन रेखा यदि दिख पा रही हो तो, कविता की कहानी और कहानी के भीतर की कविता, इन सभी को किसी एक बिंदु पर आरोपित कर इन सब पूर्व परिभाषित मापदंडों को भुला देने पर विवश कर देने की जो कला अंचित भाई ने पाई है वह विरले है, अकल्पनीय है I 77 पेज की इस किताब को अव्वल तो एक बार में बिना रुके पढ़ नहीं पाएंगे और यदि आपने यह दुसाहस कर लिया तो फिर मेरी तरह ही स्वयं में ठहर नहीं पाएंगे I फिर आप न जाने कब तक “साथ-असाथ” की नवसृजित आकाश की पंक्षी बनकर रह जाएंगे, और जब आपके पंख आपका साथ देना बंद कर देंगे और आप थक कर आँखे मूंदना चाहेंगे तो फिर न जाने कितने “काश” आपके इर्द-गिर्द होंगे- काश यह प्रश्न यक्ष ने किया होता कि ‘सबसे ठंढी चीज क्या है’ तो क्या पांडव पुत्र ने भी उत्तर में ‘बर्फ की सिल्लियों से घिरा शरीर’ ही कहा होता और यदि यक्ष का अलग प्रश्न ‘सबसे गर्म क्या है’ के ही रूप में होता तो क्या पांडव पुत्र का उत्तर ‘बर्फ की सिल्लियों से घिरे शरीर के बगल में बैठ कर रोते हुए आदमी के आंसू’ ही होता? काश जेहादी बनकर गैलेलियो और ईव बनना सहज स्वीकार्य हो गया रहता? काश इससे पहले किसी ने ऑक्सीजन चुराने और गिल्ट भी न होने की बात को इतनी साफगोई से स्वीकारी होती, क्योंकि बिना गिल्ट के ऑक्सीजन जिन्होंने भी चुराई है उन्होंने इसे स्वीकारा कब है? काश सात्र और मार्क्स और पहले पास हो गये रहते और पास ही रह जाते? काश मुमताज मरती ही नहीं और शाहजहाँ के जीवन में वह सबसे बड़ा दुःख आता ही नहीं? और काश “तुमलोगों के साथ और थोड़ा रहना था” सम्भव हो जाता और दोनों लौट पाते? साथ-साथ! साथ-असाथ!

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