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शहर पढ़ते हुए - प्रभात प्रणीत
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शहर पढ़ते हुए

पाठ :

क्या एक कवि वह नहीं होता जो हम हैं, या हम वह नहीं हो पाते जो एक कवि है, क्या वह दृष्टि ही अलौकिक है या वह हो पाना मनुष्यता का वह लक्ष्य है जिसे सभी प्राप्त नहीं कर पाते I अंचित को पढ़ते वक्त मैं बार-बार इसी उधेड़बुन में पड़ जाता हूं, यह इनकी पिछली किताब ‘साथ-असाथ’ के समय भी हुआ औऱ यह अब ‘शहर पढ़ते हुए’ के वक्त भी हो रहा है I

मैं कई बार असहज होता हूं, बेबस सा महसूस करता हूं, इनके शब्द मुझे आगे बढ़ने नहीं देते क्योंकि यह कविता से ज्यादा कुछ कहते हैं, करते हैं I इनकी कविताएं स्वयं कविता की तमाम परिभाषाओं को ही चुनौती देती हैं, यह एक नया परिभाषा ही गढ़ लेती है I यकीन मानिए अंचित इस आज से आगे हैं, इनकी दृष्टि तमाम घोषित-अघोषित बन्धनों को चुनौती दे रही है, उन्हें नया आकाश दिखा रही है I

अंचित यूनानी सागर में युलेसिस के देखे सपनों जैसे सपने कब्र में देख सकते हैं, कैलास पर बैठे शिव को कविता घोषित कर सकते हैं, वाजिद अली शाह के हरम को एक कैनवास पर खींच कर पूरी दुनिया को परिभाषित कर सकते हैं, यह साहस असाधारण है I यह कहना भर नहीं है, कहने से पहले हर शब्द को जीना भी है, उसमें कभी जलना तो कभी डूबना भी है I यह जलते हैं, डूबते हैं तभी तो ‘उस लड़की’ का रेत पर नंगा पैर इन्हें ईसा मसीह के पैर सा दिखता है और लोकतंत्र महत्वाकांक्षा की शादी का रसोइया नजर आता है I यह साहस, यह नजर इनकी कविताओं को अनश्वरता की उस ऊंचाई पर ले जाती है जहां से सारा धुंधलका मिटने लगता है, रोशनी पूरा खिलने लगती है I

इस किताब में आई अंचित की कविताएं एक दूसरे से अलग हो कर भी एक साथ बह रही प्रतीत होती हैं, जैसे पिछली कविता अगली कविता के साथ भी नेपथ्य में गूंज रही हो, लेकिन यह आपकी एकाग्रता को भटकाएगा नहीं बल्कि उसे और मजबूत करेगा, और बांधेगा I

जैसा कि इस किताब के आवरण में ही धर्मेन्द्र सुशांत भैया ने कहा है कि यथार्थ की अनदेखी किये बगैर रोमान इन कविताओं में भरपूर है, प्रेम अपने व्यापक अर्थों में बार-बार सामने आता है I इसी क्रम में विभिन्न आयत और सूरा के बीच जब अंचित ‘मुझे इस्माइल बुलाओ’ कहते हैं तो जैसे पूरी कायनात उनकी आंखों में, उनके होठों पर ठहर जाती है, भावनाओं का ज्वार हर दिशा से उमड़ने लगती है, अहसासों का समंदर हलचल सा ला देता है I

अंचित की इन कविताओं को और ज्यादा समृद्ध ‘जीवन दर्शन’ को गढ़ते वे शब्द करते हैं जो आपके अंतः को छू लेते हैं, बहुत कुछ कह जाते हैं I बहुत कुछ नया है, अनोखा है, अनकहा है, मन का स्तुति गान तो आम है अंचित जीवन यात्रा के चिह्न देह पर पढ़ते हैं, जीवन को बस लौटते रहने की प्रक्रिया भर मानते हैं, एक जीवन में एक ही यात्रा संभव है बाकी सब बातों को बहाना कहते हैं, यह मरते हुए जीते हैं और जीते हुए मरते हैं I

इन कविताओं में ‘आदमी’ का चित्रण भी अद्भुत है, यह वह है जो दिखता सबको है पर उसे पढ़ अंचित पा रहे हैं I रोशनी के इंतजार में आदमी का अंधेरा कमरा हो जाना हो, आदमी का शहर के एक छोर से दूसरे छोर के बीच निराशा और विवेचना के तिरस्कृत प्रश्नों से सम्बल भरे चेहरे खोजता, प्रतिक्षण हारता, कई लड़ाईयाँ लड़ना हो या सीधी सड़क पर निहत्था पैदल चल रहे अकेले आदमी के दिल्ली पहुंच पाने पर लगा प्रश्न चिन्ह हो, सबकुछ ठहर जाने को विवश कर देता है I

इस किताब की कविताओं के बीच अंचित के कुछ प्रश्न स्वयं में एक दर्शन है, जैसे उन्माद और सत्य कितने भिन्न हैं एक दूसरे से, सचों या सच्चों के कितने प्रकार होते हैं, आदमी का होता है धर्म कि रूह का, राम चाहिए या पत्थर चाहिए, कौन बड़ा राक्षस था कंस या रावण I ये प्रश्न इन कविताओं के सीमा को वृहद विस्तार देते हैं, आपके जेहन को खंगालते हैं I

अंचित की इन कविताओं की एक विशेषता उस विलक्षण भाषा में संवाद है जो आपको प्रारम्भ में ही खुद से जोड़ लेती है, अनुभव, अहसासों से बनी यह भाषा शब्दों से परे है, एक निश्छल धारा है जो पन्नों से निकल कर आपके मनमस्तिष्क में बहने लगती है, जितना अंदर उतना ही बाहर I जब वे कहते हैं कि
पन्ने भर दिये गये घूमते हुए फन्तासी चौराहों से
गलियों से भर भर कर उकेरे गये आसमान में शहर I
तो अंचित के साथ आप भी जमीन की ओर आना शुरू कर देते हैं I

अंचित इस किताब में हसरत-हकीकत, जज्बात-फिसलन, उम्मीद-तड़प के बीच सम्वेदनाओं को इस तरह शब्दों में पिरोते हैं कि आपके भीतर भी एक शहर बनने लगता है और आप उसकी गलियों में भटकने लगते हैं, आपकी हथेली, अंगुलियां इनके शब्दों से हर मकान के लिए सीढ़ी बुनने लगती हैं I

आप यह किताब पढ़ लेंगे, सारे पन्ने पलट लेंगे, पूरे पन्ने, पर बहुत कुछ आप अब भी पढ़ रहे होंगे, ढूंढ रहे होंगे जैसे सफेद दुपट्टे वाली लड़की के प्यार में मारा गया खिलंदड़ा, प्रत्यंचा पर चढ़ा हुआ बाण बना प्रेम, नजीब की उम्मीद को अपनी पीठ पर ढोता हुआ सूरज, मरने वाले के जेब से गिरी हुई रेजगी, सोया पड़ा यक्ष व यक्ष का बिरह गान, सबसे ठीक बताई जा सकने वाली उदासी व उदासी के गीत, बच्चों वाले घरों के आगे का पेड़ एवं बथुआ, खेसारी, अनजान पत्तियों वाली साग ढूंढती माँ और बस एक आकांक्षा कि पूरी दुनिया की जमीन ढक जानी चाहिए साग से I

जरूर पढिये, निर्वात को महसूस करिये, थोड़ा अतिरेक में जी लीजिए I

#शहर पढ़ते हुए

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