पाठ :
16 साल की लड़की अपने पिता के मित्र व उनसे सिर्फ 3 साल छोटे 40 वर्षीय प्रसिद्ध वकील जिसे वह शुरूआत में ‘अंकल’ कहती थी के निरंतर प्रेम निवेदन को स्वीकार कर प्यार करने लगे, कानून की नजर में उम्र से वयस्क होते ही परिवार, समाज से विद्रोह कर अपना धर्म बदल कर शादी कर ले और फिर उसी प्रेमी, पति से अपनी आजादी व सम्मान की लड़ाई लड़ते हुए 29 वर्ष की छोटी उम्र में अपने जन्मदिन के दिन ही दर्द, तन्हाई के दोजख में समाकर बगैर झुके, डरे इस दुनिया से चली जाए- यह कहानी किसी आम लड़की की नहीं हो सकती, सबकी नहीं हो सकती I
बावजूद इसके इस कहानी के पात्र, इस कहानी के संवाद, इस कहानी की पीड़ा बहुत आम है, हमारे बीच के हैं I वह सब बीते आज लगभग 100 वर्ष हो गए पर ‘एक लड़की’ के इर्दगिर्द के पात्र, संवाद, पीड़ा अब भी लगभग यथावत है I यह एक सदी पश्चात भी यथावत होना मानव सभ्यता के विकास यात्रा की उस असफलता का स्पष्ट द्योतक है जो हमारे होने के साथ स्याह पैबन्द की तरह चिपका है I जो हमारी ही अहंकारी पौरुष नजरों को नग्न करता है और इससे मुंह चुराने की हमारी हर कोशिश मंगल ग्रह पर जीने की हमारी ख्वाहिश को खोखला करता है, चांद पर नापे गए पैरों को छोटा करता है I
रतनबाई ‘रूटी’ पेटिट की यह कहानी सिर्फ इसलिए खास नहीं हो जाती क्योंकि उनका प्रेमी मोहम्मद अली जिन्ना थे, या यह सिर्फ इसलिए नहीं कि इस लगभग 13 वर्ष की कहानी में आये कई वाकये स्वतंत्रता संग्राम की कड़ियों के बीच गुथे हुए हैं इस नाते इससे हमारा स्वाभाविक वास्ता है बल्कि इसलिए भी यह कहानी खास है क्योंकि यह कहानी प्रेम, समर्पण की इंतहा और व्यक्तिगत आजादी के बीच की रेखा को साफ उजागर कर देती है, नारी संवेदना और पौरुष दम्भ के बीच के संघर्ष के तमाम परतों को सामने ला देती है I
बेमिसाल सौंदर्य को समेटे 16 साल की रूटी जो लगभग दो दशक से विधुर जिन्ना को एक समय ‘मोनालिसा’ सी खूबसूरत दिखती है, जिसकी आधुनिक सोच, खुलेपन, फैशनेबल रहन-सहन, मानसिक दृढ़ता का वह दिवाना हो जाता है और जिससे शादी करने के लिए वह सामाजिक व कानूनी लड़ाई लड़ता है, कुछ ही समय में उसी रूटी की वही सोच, रहन-सहन उसी जिन्ना के लिए इस हद तक असहनीय हो जाता है कि वह न सिर्फ उस पर हाथ उठाता है बल्कि रिश्ते को इस हद तक कड़वाहट से भर देता है कि फिर उस रिश्ते में सिवाय दर्द के कुछ बचता ही नहीं I
जिन्ना का यह बदला रूप उसकी लाडली बहन फातिमा के प्रभाव में हो या राजनीतिक महत्वकांक्षा में रूटी की आधुनिकता के वजह से पड़ रहे अवरोध से प्रभावित हो लेकिन यह दरअसल पुरुष के उस तस्वीर की ही पुष्टि करता है जो कि रूटी की नजरों में ‘लोमड़ी से अधिक चालाक, गिद्ध से अधिक तेज निगाह वाला शातिर और कांदले मन का होता है’ I
रूटी का चरित्र वाकई काफी प्रभावित करता है I वह अपने माँ-बाप की आंखों में आंख डाल कर जिन्ना से शादी करने के लिए बहस करती है और ‘भविष्य की आशंकाओं को वर्तमान की रुकावट बनने देना’ अस्वीकार कर देती है तो उसी दृढ़ता से जिन्ना से अपने हर हक के लिए लड़ती है, वक्त आने पर जिन्ना से खुद को दूर भी कर लेती है और अपनी व्यक्तिगत आजादी अक्षुण्ण रखने के लिए आखिरी सांस तक संघर्ष करती है I
तमाम किताबों, पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन पर आधारित राजेंद्र मोहन भटनागर की यह किताब हालांकि रूटी के जीवन पर केंद्रित है लेकिन इस किताब से मोहम्मद अली जिन्ना के चरित्र को समझने का मौका भी मिलता है I
राजनीति और जीवन को शतरंज की तरह देखने वाले, खेलने वाले जिन्ना भले ही महात्मा गांधी के कार्यप्रणाली, जीवनशैली को ढकोसला समझते हों लेकिन एक समय खुद को पहले हिंदुस्तानी फिर कुछ और मानते हुए वे स्वयं कहते थे कि ‘हिंदुस्तान रहेगा तो हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी रहेंगे, हमें यहां एकता से रहना है, सबके साथ रहना है’ I उनकी खुद की जीवनशैली समस्त धार्मिक आडम्बरों से दूर आधुनिकता से भरी हुई थी I वे मुल्ला-मौलवी के कट्टरता को रूढ़ व निर्दय मानकर वे उससे सख्त नफरत करते थे I
यह समझ के परे है कि शराब पीने वाले, सुअर की मांस खाने वाले, कभी नमाज नहीं पढ़ने वाले, मुस्लिम तौर-तरीकों से दूर रहने वाले और कभी तथाकथित कठमुल्लाओं की गुलामी से आवाम को मुक्त कराने का इरादा रखने वाले जिन्ना किस तरह धर्म के आधार पर हुए बंटवारे के पश्चात बने पाकिस्तान के कायदे आजम बन गए I कट्टरपंथियों ने जिन्ना का इस्तेमाल किया या जिन्ना ने कट्टरपंथियों का या दोनों ने एक दूसरे का ? पर जिसने भी जिसका इस्तेमाल किया हो कीमत तो इस मुल्क को चुकानी पड़ रही है I
प्रसिद्ध कवयित्री सरोजिनी नायडू का जिन्ना से एकतरफा प्रेम और जिन्ना द्वारा उसे ठुकरा देने के पश्चात भी दोनों का एक दूसरे का करीबी मित्र बने रहना, मेरे लिए एक नई जानकारी थी I
रूटी के सामाजिक कार्यों के अलावा मुल्क के बंटवारे की आहट को लगभग दो दशक पहले सुन लेना और जिन्ना से जूझना उसके व्यक्तित्व का एक मजबूत पक्ष है I रूटी न सिर्फ खुद इस बात को समझती है बल्कि जिन्ना को भी समझाती है कि क्यों धर्मांतरण कर बने मुसलमान मूल मुसलमानों से ज्यादा कट्टर व आक्रामक होते हैं, क्यों मुस्लिम धर्म की मूल अच्छाइयों से वे विमुख हो जाते हैं I
रूटी के शब्दों में यह वजह है “उनको लगा कि उनका धर्म कितना कमजोर है जो गैर धर्म के हमलों से न तो उनकी रक्षा कर सका और न ही उन्हें पुनः अपने धर्म में वापस ले सका I…..उनके मन में उनके प्रति बदले की आग जल रही है I उनके खून में आज तक इसी वजह से बगावत की अंधी आंधी अवसर पाकर उमड़ पड़ती है” I
लगभग यही बात और ऐसी ही बात बंटवारे के दशकों पश्चात पाकिस्तान के जेलों में रहने के दौरान भारत के प्रसिद्ध जासूस मोहनलाल भास्कर को पाकिस्तान के एक अधिकारी राजा-गुल-अनार खान ने कही थी जिसके परदादा के दादा धर्मान्तरण कर हिन्दू (राजपूत) से मुसलमान बने थे I यह विस्तृत वार्तालाप मोहनलाल भास्कर के किताब ‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था’ में वर्णित है I
रूटी के उपरोक्त विश्लेषण पर लंबी चर्चा हो सकती है, यह निष्कर्ष बिल्कुल गलत भी हो सकता है, लेकिन पाकिस्तान के दो प्रमुख नायक इकबाल और जिन्ना के दादा, परदादा का क्रमशः कश्मीरी ब्राह्मण एवं गुजराती वैश्य (या पुरखे पंजाब के राजपूत) होने का संयोग एक संकेत तो देता ही है I
रूटी ने तो जिन्ना के तेजी से बदलते सोच को देखकर साफ-साफ शब्दों में आगाह करते हुए कहा था कि ‘अपनी नफरत को देश की नफरत में मत बदलो I जो हिंदुस्तान में हैं वे सब हिंदुस्तानी हैं I सिर्फ हिंदुस्तानी मुस्लिम, ईसाई, पारसी, हिन्दू नहीं I”
काश यह बात जिन्ना के साथ उस वक्त के हर धर्म के कट्टरपंथी तत्व समझ पाते तो यह मुल्क न बंटता, और काश यह बात अब भी इस मुल्क के तमाम हिन्दू, मुस्लिम कट्टरपंथी समझ लें तो यह मुल्क और तबाही, बर्बादी से बच जाए I
रूटी और जिन्ना की इस ऐतिहासिक प्रेम कहानी को राजेंद्र मोहन भटनागर ने बेहतरीन तरीके से इस किताब में दर्शाया है I पात्रों, उनके व्यक्तित्व के साथ पूरा न्याय किया गया है I
रूटी अपनी सारी लड़ाई खुद लड़ती है, मां-बाप से भी, समाज से भी, और पति से भी I अपनी अस्मिता, वजूद हेतु पूरी दुनिया से खुद जूझती है I अपनी तन्हाई से भी वह खुद ही लड़ती है I कविता, शेर, थियोसोफिकल सोसायटी में खुद को रमा कर जीने की कोशिश अवश्य करती है लेकिन स्वयं के उसूलों से कभी समझौता नहीं करती, न तो याचक बनती है और न ही खुद के पीड़ित होने को अपनी कमजोरी बनने देती हैI वह जीती है अपने शर्तों पर और मौत का आलिंगन भी अपने ही शत्तों पर करती है I
उसका वह दुःखद अंत, उसकी वह हार यदि वह हार ही है तो पीड़ा देती है, लेकिन अब एक सदी पश्चात भी इस तरह की कहानियों का हमारे आसपास मौजूद होना यह बतलाता है कि हम आज भी कितने अधूरे हैं, हमारी दृष्टि कितनी छोटी है और आधी आबादी को बराबर की वास्तविक हिस्सेदारी देने के लिए हमें न जाने कितनी सदी और चलना है I