1857- हकीकत और त्रासदी
इतिहास का छात्र न होना कितनी बड़ी सजा है यह अब समझ पा रहा हूं I हम जो देखते हैं, जो समझ रहे होते हैं, या फिर जो हमारी अन्तःदुनिया होती है वह सत्य से कितना दूर हो सकती है, यह इस किताब ने स्पष्ट कर दिया I लेकिन यदि इतिहास का छात्र होता भी तो क्या मैं वास्तविक इतिहास को जान पाता? यह इतना आसान कभी रहा नहीं है I
एक कहानी बनाई जाती है, समझाई जाती है, और आपके पूरे विवेक को वास्तविकता से बहुत दूर पहुंचा दिया जाता है, यह राजनीतिक स्वार्थ में किया जा सकता है या यह साम्प्रदायिक या अन्य स्वार्थ में भी किया जा सकता है I
1857 आपके लिए क्या है, अंग्रेजो की राजनीतिक गुलामी से आजादी की पहली मुकम्मल जंग या विद्रोह? मैंने वही विकल्प दिए हैं जो अब तक मेरी अपनी समझ रही है I
इस किताब को पढ़कर जो कि वर्षों के गहन निष्पक्ष शोध का परिणाम है मैं कह सकता हूं कि 1857 का गदर चाहे जो भी था, उसे गुलामी के विरुद्ध कोई जंग तो बिल्कुल नहीं कह सकते I यह विशुद्ध रूप से जातीय अहम व धार्मिक आस्था पर अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे चोटों के विरुद्ध की गई लड़ाई थी I
यह तथाकथित धर्मयुद्ध था, जिहाद था, जो भी था पर आजादी की लड़ाई तो नहीं ही थी I कम से कम दिल्ली में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय के इर्द- गिर्द हुई तमाम घटनाक्रम का सार तो यही है I
और दिल्ली तब भी सिर्फ एक शहर नहीं था, पूरे मुल्क का आईना था I तन्हा एक शहर का अपना कोई वजूद नहीं होता, वो तो जिंदगियां, हवाएं, सांसे सब मिल के एक शहर बनता है जो कमोबेश पूरे मुल्क में तब एक समान ही थी I
इतिहास का मूल स्वरूप में पहुंचना बहुत आवश्यक है अन्यथा भ्रम में पड़ी पीढ़ियों को गलत निष्कर्ष तक धकेलने का खेल चलता रहेगा I
वी.डी. सावरकर की किताब ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस, 1857’ का एक उध्दरण और उस पर बनी फिल्म मंगल पांडे को आजादी की लड़ाई का हीरो, पूरे विद्रोह का केंद्र बना देता है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं था I
दरअसल साम्राज्यवादी विक्टोरियन इतिहासकार या तथाकथित भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकार दोनों के लिए 1857 के गदर को ‘एकीकृत वतनपरस्त कौमी आजादी की जंग’ घोषित करना उनके स्वार्थ व उद्देश्यों के ज्यादा अनुरूप है I
सती प्रथा समाप्त किए जाने, समुन्द्र यात्रा के लिए मजबूर किए जाने जो कि तब धर्म भ्रष्ट होने का द्योतक था, धर्मांतरण करने वालों को जायदाद में हक़ मिलने के कानून, कैदियों को जबर्दस्ती ईसाई बनाने से पहले से दुखी हिन्दू और ऐसे ही कारणों से दुखी मुस्लिम तब नए-नए प्रयोग में आए एम्फील्ड रायफल में इस्तेमाल किए जाने वाले कारतूस में प्रयुक्त गाय और सुअर के चर्बी से बनी चिकनाई जिसे उन्हें मुंह में लगाना पड़ता था द्वारा धर्म नष्ट किए जाने की साजिश के भय से भड़क गए थे I और यह आग अम्बाला, मेरठ, बंगाल सभी जगह फैल गया I
बहादुर शाह जफर तब पिछले सौ साल से अंग्रेजों द्वारा मुगलों को मुल्क से बेदखल करने की सुनियोजित प्रक्रिया के तहत लाल किले के अंदर भले ही सीमित कर दिए गए थे पर तब देश के बड़े हिस्से के हिन्दू और मुसलमानों को वे धर्म रक्षा के सबसे सुदृढ़ नायक लगे I
सभी दिल्ली पहुंचे जरूर, उन्होंने जफर को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया जरूर पर इसलिए नहीं कि उन्हें अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता से कोई समस्या थी I देश प्रेम जैसी कोई भावना भी तब कहीं नहीं थी I वे सिर्फ ‘मजहब का डंका’ बजा रहे थे I
खुद बहादुर शाह जफर को भी उनके दिल्ली पहुंचने तक इस बात का कोई इल्म नहीं था, वे तो बाद में इसे अपने मुगल गौरव को पुनः हासिल करने का एक मौका मानकर सैनिकों के साथ हो गए I
बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब से ‘म्लेच्छ अंग्रेजों’, ‘काफिर ईसाइयों’ को खत्म कर अपने-अपने धर्म की रक्षा के लिए दिल्ली पहुंचे हिन्दू और मुस्लिम सैनिक खुद दिल्ली को लूटने में लगे थे I उन्होंने ईसाइयों का तो कत्लेआम किया ही, दिल्ली शहर, वहां के लोगों को भी तहस-नहस कर दिया I
इस तरह के आतंक, अराजकता से रोकने का बहादुर शाह जफर का कोई प्रयास सफल नहीं हुआ क्योंकि वे अब अंग्रेजों के बदले पूरब से आए इन ‘तिलंगियों’ द्वारा कैद हो गए थे I
हद तो यह थी कि बहादुर शाह जफर जब उन्हें ईसाइयों और दिल्ली के आमलोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने का अनुरोध करते तो वे 82 साल के उस वृद्ध को जिन्हें उन्होंने अपना सम्राट घोषित किया था, का दाढ़ी पकड़ कर, ‘बुड्ढा’ कहकर नौकरों सा व्यवहार करते थे, अपमानित करते थे I
कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी, बहादुर शाह जफर के सोलह बेटों में से एक मिर्जा मुगल ने उस अराजकता को दूर कर अंग्रेजों के विरुद्ध तार्किक, सुनियोजित लड़ाई लड़ने का प्रयास अवश्य किया पर वहां कोई किसी को सुनने वाला नहीं था I एक जगह से आए रेजिमेंट के सैनिक दूसरे रेजिमेंट को सुनने को तैयार नहीं थे I दिल्ली को लूटकर अमीर बनने में व्यस्त ये सैनिक लूट के सामान के बंटवारे में आपस में भी लड़ बैठते थे I
दिल्ली की जंग न तो देश भक्ति के लिए थी न ही अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता से होने वाली किसी असहजता की वजह से I कड़वा सच यह है कि यह जंग सिर्फ अपने-अपने धर्म की रक्षा के लिए थी जिसे मुस्लिम और हिन्दू कट्टरपंथी खुल के हवा दे रहे थे, उनके लिए यह जिहाद था, धर्म युद्ध था I
क्या आपने कभी ‘गोरे मुगल’ शब्द को कभी पढा है, सुना है ? मैंने तो नहीं सुना था, और मेरा नहीं सुनना इतिहास से की जा रही बेईमानी का ही एक और परिणाम है I
अंग्रेज व्यापारी बन कर आए थे और उन्होंने बाकी जो जुल्म किए यह तो कमोबेश हम सभी जानते हैं पर यह काफी कम लोग जानते हैं कि बहुत सारे आम-खास अंग्रेज भारतीय संस्कृति से प्रभावित हो कर यहीं के रंग में रंग गए थे I
हिंदू और मुसलमानों की धार्मिक आस्था का सम्मान करते हुए उन्होंने गाए और सुअर दोनों का मांस खाना छोड़ दिया था I उन्होंने यहां शादियां भी की एवं एक ‘मिश्रित नस्ल’ को जन्म दिया I इन्हीं आम-खास अंग्रेजों के लिए तब ‘गोरे मुगल’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते थे I
लेकिन कट्टरपंथ से इस दुनिया का कोई भी मजहब कभी अछूता नहीं रहा I अंग्रेजों की यह सह्रदयता कट्टरपंथी ईसाइयों को पसंद नहीं आई I
ईसाई पादरी जॉन जेनिंग्स जैसे कट्टरपंथियों ने एक तरफ अंग्रेजों की धार्मिक शुद्धता की मुहिम चलाकर अंग्रेजों को हिंदुस्तानियों से दूर किया तो दूसरी तरफ हिंदुस्तान में प्रचलित तमाम धर्मों को समाप्त कर ईसाई धर्म के कठोर प्रसार की मुहिम चलाई जो कि हिन्दू, मुसलमान दोनों को भड़का गया और अंततः अंग्रेजों के लिए घातक साबित हुआ I
अकबर के सर्व धर्म समभाव सोच के बारे में तमाम विवरण उपलब्ध हैं लेकिन इस किताब को पढ़कर बहादुर शाह जफर के भी धर्मनिरपेक्ष सोच की जानकारी मिली I वे साफ तौर पर हिन्दू और मुसलमान को एक ही रूह मानते थे I
कट्टरपंथी मौलवियों के उन्मादी दलीलों को वे सदैव ठुकराते रहे I उनमें अन्य कमजोरियां थी पर वह भारतीयता उनमें कूट-कूट कर भरी थी जिसने इस मुल्क को महान बनाया जिससे उन्हें धार्मिक भेदभाव, शोषण, कट्टरता गुनाह लगता था I
शायरी से पागलपन की हद तक का बहादुर शाह जफर का इश्क और साहित्य, कला से असीम प्रेम भी प्रभावित करता है I तभी गालिब और जौक जैसे शायर सदैव उनके इर्दगिर्द रहते थे I
दिल्ली पर केंद्रित यह किताब दिल्ली शहर के धर्मनिरपेक्ष मिजाज, हिन्दू मुस्लिम एकता को बयां करती है I यह मुगल साम्राज्य के आखिरी दिनों तक की उस सामाजिक मनोदशा को भी स्पष्ट करती है जिससे मुसलमानों के साथ लगभग एक हजार साल तक सहजीवन के बाद भी हिंदुस्तान के मूल चरित्र सर्वधर्म समभाव के राष्ट्रीय स्तर पर कायम रहने का पता चलता है I
यह बात उल्लेखनीय है क्योंकि इसी तथ्य से चंद वर्षों की मिश्रित साजिशों से 1947 में हुए बंटवारे की विभत्सता का भी अहसास होता है I हालांकि 1857 के विद्रोह के बाद के महीनों में वहाबी कट्टरपंथियों के बढ़ते हस्तक्षेप, प्रभाव ने हिन्दू और मुसलमान के बीच दूरी पैदा की, ठीक उसी तरह जैसे 1947 के पहले या आज भी विभिन्न धर्मों के कट्टरपंथी भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप, स्वभाव पर मिलकर कुठाराघात करते रहे हैं I
इन दिनों मुगलों के शासन को लेकर एक धारणा प्रायोजित की जा रही है कि उस वक्त इस देश के हिन्दू मुस्लिम शासकों से आक्रांत थे, लेकिन जैसा कि इस किताब में वर्णित है जिस तरह हिंदुस्तान के विभिन्न हिस्सों से दिल्ली आकर हिंदुओं ने बहादुर शाह जफर को अपना सम्राट घोषित किया वह भी राजनीतिक सत्ता की आकांक्षा या देश प्रेम जैसी भावना से प्रेरित होकर नहीं बल्कि अपने सनातन धर्म की रक्षा के लिए उससे स्पष्ट है कि तैमूर, चंगेज, औरंगजेब जैसे शासकों के क्रूरता के बावजूद अधिकांश मुसलमान, मुगल शासकों ने हिंदुओं के साथ धार्मिक आधार पर कोई सामुहिक अत्याचार नहीं किया था I
1857 में दिल्ली आए सैनिक, असैनिक विद्रोहियों में 65 प्रतिशत उच्च जाति के हिंदुओं का होना इस बात को और बेहतर तरीके से साबित करता है I
सैकड़ों सालों से उनके अधीन होने के बाद यदि मुसलमान व मुगल शासकों के प्रति हिंदुओं में भय की, घृणा की भावना होती तो वे कभी भी अपनी धर्म रक्षा की लड़ाई का नायक बहादुर शाह जफर को नहीं बनाते, मुसलमानों के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा नहीं लेते I
आजादी पूर्व मुस्लिम लीग, मो.अली जिन्ना और कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों का हिन्दू और मुसलमान को दो भिन्न कौम मानने का सिद्धांत अपने आप में कितना द्वेषपूर्ण और खोखला था यह उपरोक्त्त तथ्य से स्पष्ट हो जाता है I
दरअसल एक पूरी सदी तक विक्टोरियन इतिहासकार की मदद से तथाकथित राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने एक हद तक हिन्दू-मुसलमान की इस एकता की बात को छुपाए रखा क्योंकि उनके लिए हिन्दू सिपाहियों का इतनी बड़ी तादाद में दिल्ली में मुगल सल्तनत को फिर से कायम करने के लिए जमा होना अस्वीकार्य था I
दिल्ली शहर तो साम्प्रदायिक सद्भाव, सूफी सोच, सह्रदयता का केंद्र था, सामाजिक ताना-बाना बिल्कुल सौहार्दपूर्ण था I इस हद तक कि तमाम ज्ञानी, विद्वान हिंदुओं की शिक्षा मदरसों में ही हुई I
इंसान धर्म के मनमाफिक इस्तेमाल के बहाने ढूंढ कर खुद की गुनाहों को ढकने की पूरी कोशिश करता है I बेगुनाह ईसाई औरतों-बच्चों के साथ वहशी बने धर्मयुद्ध और जिहाद कर रहे हिन्दू-मुसलमान इस गुनाह के लिए अपने गीता और कुरान से प्रेरणा ले रहे थे तो इनसे और बदतर तरीके से बदला लेने वाले अंग्रेज सैनिक बाइबिल के 116 वें स्तोत्र से I
हिन्दू-मुसलमान व उनके पंडित, मौलवी अंग्रेज ईसाइयों के कत्लेआम को अपने-अपने धर्मों की रक्षा के लिए जाएज ठहरा रहे थे तो अंग्रेज ईसाई व उनके पादरी दिल्ली के सड़कों पर किए जा रहे दिल्ली वालों के नृशंस कत्लेआम को ‘खुदाई इंतकाम’, ‘खुदाई इंसाफ’, ‘मेरे मसीहा की लड़ाई’ घोषित कर रहे थे I
जो यह धर्म है तो फिर इसकी आवश्यकता ही क्या है, जो इसलिए धर्म है तो मानवता इसकी गुलाम क्यों है, खुद की तबाही के लिए, अपनी अंतरात्मा तक को नष्ट कर देने के लिए ? सबके पास उसका अपना ‘सत्य’ है और वह स्वविवेचित ‘असत्य’ के खिलाफ युद्ध कर अपने-अपने हिसाब से धर्मरक्षा के लिए स्वतंत्र है ?
क्या इस स्वरचित विधान से इंसानियत बचेगी, मानव जाति का कल्याण होगा ? धर्म की प्रासंगिकता इससे सिद्ध होती है या फिर धर्म के विध्वंसक निष्कर्ष का इससे अहसास होता है ?
धर्मरक्षा के नाम पर शुरू हुई 1857 की नेतृत्वविहीन जंग हिंदुस्तानियों के सैनिक, रणनीतिक, प्रशासनिक और वित्तीय सांगठनिक कमजोरियों के कारण असफल हो गई I अराजकता तो पैदा कर दी गई पर व्यवस्था स्थापित नहीं की गई, क्योंकि इस पूरे जंग के मूल में देश प्रेम और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी थी I
वे सिर्फ ईसाईयों का नरसंहार कर अपना-अपना धर्म बचाना चाह रहे थे, और इस तरह का तथाकथित धर्मयुद्ध व जिहाद कभी भी किसी राष्ट्र पुनर्निर्माण, साकारात्मक व्यवस्था परिवर्तन का आधार तो बन ही नहीं सकता I आज तालिबान, बोकोहरम और अलकायदा जैसे संगठनों के जिहाद वाले क्षेत्रों का हश्र देख लीजिए I
अंग्रेजों की जीत की एक वजह इस पूरे विद्रोह के उपरोक्त चारित्रिक कमी के अलावा विभिन्न्न भारतीय राजाओं, साहूकारों द्वारा अंग्रेजों को दी जा रही निरन्तर मदद भी थी I अंग्रेजों के तरफ से मरने वाले ज्यादातर सैनिक हिंदुस्तानी ही थे, और शर्मनाक बात यह कि इन हिंदुस्तानी सैनिकों के मौत को भी अंग्रेज अफसर तिरस्कृत नजरों से देखते थे, नस्लीय अहंकार में वे इनके मौत का भी उपहास उड़ाते थे I
आश्चर्यजनक तरीके से बहादुर शाह जफर के मुकदमे और सजा तय करने के दौरान अंग्रेजों ने अपनी धर्मान्धता और इस्लामी दुश्मनी, पूर्वाग्रह की वजह से 1857 के इस पेचीदा मसले को सरल करके पेश करते हुए ‘अंतरराष्ट्रीय इस्लामी साजिश’ घोषित कर दिया I
जबकि इसे तो सवर्ण हिंदुओं ने अपनी जात व धर्म पर खतरा देख कर, तात्कालिक फौजी शिकायतों की वजह से शुरू किया था और फिर यह पूरे मुल्क में फैल गई और इसमें विभिन्न बिखरे हुए ग्रुप शामिल होते गए जो अंग्रेजों की आक्रामक रूप से असंवेदनशील व क्रूर नीतियों की वजह से नाराज थे I
विलियम डैलरिंपल के चार वर्षों के गहन शोध जो उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, रंगून आर्काइज्ब के हजारों निजी-सरकारी खतों, अखबारों, दस्तावेजों में घुसकर, हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बर्मा, इंग्लैंड की यात्रा कर, रुद्रांगशू मुखर्जी, एरिक स्टोक और तापती रॉय की बेहतरीन रिसर्च की मदद से की, से जो 1857 गदर की तस्वीर सामने आती है वह वाकई भयावह है I
विलियम डैलरिंपल के इस किताब के हर पन्ने न सिर्फ तब के हिंदुस्तान की राजनीतिक, सामाजिक वस्तुस्थिति से रूबरू कराते हैं बल्कि मानवीय संवेदना के हर पहलू को झकझोर कर रख देते हैं I
इस किताब को पढ़कर, तब की निष्पक्ष सच्चाई को जानकर मैं खुद इतना आहत हूं कि समझ नहीं पा रहा कि आपको किताब पढ़ने की सलाह कैसे दूं, कैसे कहूं कि यह किताब पढिये और अपने मुल्क की, पूर्वजों की स्याह चरित्र से रूबरू होइए I पर यदि आपको कड़वा सच किसी भी फरेबी भ्रम से ज्यादा पसंद हो तो इस किताब को जरूर पढिये I
आहत होने के तमाम कारण है जैसे- हिंदुस्तानियों की अकर्मण्यता, जातीय विद्वेष, धार्मिक कट्टरता, राष्ट्र बोध का अभाव, राजाओं, जमींदारों, साहूकारों का अंग्रेजों के प्रति लगाव, लेकिन सबसे ज्यादा दुख दिल्ली शहर के हश्र पर होता है I
तब हिंदुस्तान के इस सबसे शानदार, प्रतिष्ठित तहजीब और इल्म के शहर दिल्ली को ‘लाशों के शहर’ में तब्दील कर दिया गया, पहले खुद हिंदुस्तानियों द्वारा फिर अंग्रेजों द्वारा I
अंग्रेजों ने सिर्फ इंसानों का नरसंहार नहीं किया बल्कि दिल्ली के ऐतिहासिक निर्माणों, सांस्कृतिक केंद्रों, मस्जिदों, मकबरों, हवेलियों, बाजारों, बागों तक को नष्ट कर रेगिस्तान बना दिया I
यदि जॉन लॉरेंस जैसे प्रशासक हस्तक्षेप न करते तो अंग्रेज बदले की आग में दिल्ली शहर का वजूद तक मिटा देने का फैसला कर चुके थे और उस पर तेजी से अमल भी कर रहे थे I दुनिया के सबसे शानदार महलों में से एक लाल किले का भी 80 प्रतिशत भाग तब तक ढह चुका था I
अंग्रेजों ने तो इंतकाम के जुनून में वहशीपन की सारी सीमा लांघ दी, और नादिरशाह के दिल्ली में 1739 में किए चंद घण्टे के कत्लेआम, तबाही को बौना कर दिया I
हालांकि नादिरशाह जिस शेर को सुनकर कत्ले-आम रोकने को मजबूर हो गया था उस शेर और उसके असर की जरूरत तो 1857 में ज्यादा थी-
अब कोई नहीं बचा है तेरे सितमगर तलवार के लिए
सिवाय इसके कि उनको फिर से जिंदा करे और मार डाले
1857 के इस जंग के तमाम दुष्परिणामों में सबसे दुखद दुष्परिणाम था हिंदुस्तान के गंगा-जमुनी तहजीब का बिखरना I अंग्रेज हिन्दू-मुसलमानों की सम्मिलित ताकत एवं मुगल शासक के प्रति उनकी श्रद्धा का उनके लिए होने वाले घातक असर को देख चुके थे I
सबसे पहले अंग्रेजों ने दिल्ली शहर से मुगलों के नामोनिशान को मिटाना शुरू किया फिर बहादुर शाह जफर, उनके खानदान व सहयोगियों के लगभग सफाया के बाद उन्होंने मुगलों के प्रति अपनी नफरत और हिन्दू-मुस्लिम एकता को नष्ट करने के उद्देश्य से वह सबकुछ किया जिससे हिन्दू और मुसलमानों के बीच की खाई चौड़ी हो I
इसी के तहत उन्होंने शुरुआत में मुसलमानों की घोर उपेक्षा, तिरस्कार व शोषण की नीति अपनाई I मनगढ़ंत इतिहास लेखन किया जिसमें हिन्दू मंदिरों को ढाहे जाने की कई मनगढ़ंत कहानियों को हिंदुओं के बीच पहुंचाया जिसमें उन्हें कट्टरपंथी हिंदुओं का पूरा साथ मिला I
अफसोस की बात यह है कि अंग्रेजों ने अपने पूर्वाग्रह, बदले की भावना और साम्राज्य कायम रखने हेतु साजिशन जो मुसलमान, मुगल शासकों के प्रति रुख अख्तियार किया, उनकी जो नाकारात्मक छवि स्थापित की उसका असर हिंदुस्तान की आने वाली बहुसंख्यक पीढ़ियों पर भी पड़ा और इसने इस मुल्क की समरसता, सद्भावना पर काफी बुरा असर डाला I
दरअसल बहादुर शाह जफर के अंत के साथ हिन्दू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े और प्रभावी पैरोकार का भी अंत हो गया, और यही 1857 की सबसे बड़ी त्रासदी थी I जिसे और वृहत्त करते हुए अंग्रेजों ने हिंदुस्तानी एकता की सबसे बड़ी ताकत गंगा-जमुनी तहजीब को नष्ट करने की शुरुआत कर दरअसल उस विष का बीजारोपण कर दिया जिसने अंततः 1947 में इस महान मुल्क को हमेशा के लिए टुकड़ों में बांट दिया I
1947 भी आखिरी निष्कर्ष कहां था, पिछले 70 सालों से यह महान मुल्क अपने खुद के हिस्सों से लड़ने में ही इतनी ऊर्जा खर्च कर रहा है कि इसके हर हिस्से के गरीब बाशिंदे पीढ़ी दर पीढ़ी भुखमरी, बेरोजगारी, तकलीफ में जीने को मजबूर है I 1857 का असर अब भी बाकी है, वह कहर अब भी जारी है I
अंग्रेजों ने दिल्ली शहर को तो मिटाया ही खास तौर पर लेखकों, शायरों, पत्रकारों के कत्लेआम पर भी पूरा जोर दिया I हालांकि यह जरूरी नहीं कि हर लेखक सामाजिक, राजनीतिक मुहीम का सक्रिय हिस्सा बने लेकिन बहादुर शाह जफर के सहचर, मशहूर शायर गालिब का अंग्रेजों के समक्ष उस हद तक झुक जाना थोड़ा खलता है I
अंत में गालिब का ही एक शेर जो उन्होंने दिल्ली की बर्बादी को देखकर लिखा था जो दरअसल पूरे मुल्क की बर्बादी थी-
तोड़ बैठे जबकि हम जामो-सुबू फिर हमको क्या
आसमां से बादा-ए-गुलफाम गो बरसा करे
(मैं चूंकि इतिहास का छात्र नहीं हूं इसलिए ऊपर कहे गए अपने किसी भी बात का साक्ष्य मेरे पास उपलब्ध नहीं है सिवाय विलियम डैलरिंपल के ‘आखिरी मुगल’ नामक इस किताब के, और जिस पर संदेह करने की कोई वजह नहीं दिखती I हालांकि इस किताब के वर्णित हर महत्वपूर्ण वक्तव्य, तथ्य का संदर्भ(साक्ष्य) इस किताब के आखिर में संकलित है I
एक अनुरोध, यदि आप हिन्दी भाषी हैं तो विलियम डैलरिंपल के इस किताब के मूल अंग्रेजी संस्करण के बदले जकिया जहीर के इस बेहतरीन अनुवाद को पढिये, कई बार किसी मुल्क की कहानी पाठ को उस मुल्क की भाषा ज्यादा प्रभावी, सहज बना देती है I और यह तो दिल्ली की कहानी है, उर्दू, हिंदी वाली दिल्ली जिसके साथ जकिया जहीर ने पूरा न्याय किया है, और इस किताब की खूबसूरती को और बढ़ाया है I)