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इतिहास से अजनबी - प्रभात प्रणीत
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इतिहास से अजनबी

पाठ :

एक किताब से जिसकी प्रकृति आप पहले से जान रहे हों आप क्या-क्या और कितनी अपेक्षा रख सकते हैं, और वह भी तब जब उसकी जमीन कल्पना की भुरभुरी मिट्टी से नहीं बल्कि हकीकत की ठोस मिट्टी से बनी हो ?

उस कठोर वास्तविक दुनिया की कहानी जहां मनमाफिक उड़ पाने की भी कोई गुंजाइश न हो I लेकिन इस किताब से आप जितनी भी अपेक्षाएं रखना चाहते हैं रख लीजिए, यह किताब अधिकांश को पूरा कर देगी I

इस किताब के पन्ने दरअसल रूह की तलाश में रंगे गए हैं I
खुद को ढूंढते उस व्यक्ति के स्वयं के रूह की तलाश I
उसको खारिज करता वह समुदाय जो पितृसत्तात्मक दुनिया में पैदा लेने की वजह से उसका है, उसी समुदाय के रूह की तलाश I
उस व्यक्ति के अपने जन्मभूमि के विभिन्न टुकड़ों में मौजूद उस रूह की तलाश जिसके तरफ झांके बगैर पीढियां गुजर रही हैं, मिट रही हैं I

अनेक रंग जो जेहन को झकझोरता है, कई बार बेचैन करता है तो कई बार खुद में छुपा लेता है, उस सा ही बना देता है I जिसके रंग मिट नहीं पाते, छूट नहीं पाते I

एक व्यक्ति के भवनात्मक उतार चढ़ाव से लबरेज जद्दोजहद जहां वह खुद की पहचान और अस्तित्व के संकट से जूझ रहा हो, अपनी बुनियाद, वजूद का आधार ढूंढ रहा हो I

एक समुदाय का इतिहास से वांछित-अवांछित संघर्ष जहां पहचान व अस्तित्व का कृत्रिम संकट ही तमाम साजिशों के मूल में हो और दुर्भाग्यवश जिनका सूत्रधार खुद उसी समुदाय के स्वघोषित रक्षक हों I

एक पूरे-पूरे राष्ट्र के अप्रत्याशित टूट और उसके बीच की बिखरी जिंदगियों के पहचान व अस्तित्व का आरोपित संकट जो उस राष्ट्र के बने टुकड़ों का भी संकट बन जाये और जज्बात कुछ इस कदर भटके कि इन टुकड़ों को सालों-साल आपस में ही उलझे रहने के लिए विवश कर दे I

अंतरात्मा, इतिहास और भूगोल की वह कहानी जो आपकी न हो कर भी आपकी है, जिसमें आप न हों तब भी हैं और जो नहीं हैं तो आपको कहीं न कहीं होना चाहिए, अपने लिए पात्र गढ़ लेना चाहिए I

इस किताब को मुसलमान जरूर पढ़ें खुद को और ज्यादा जानने के लिए, अपने होने का सही अर्थ समझने के लिए, उस इतिहास से अब मिल लेने लिए जिससे उन्हें न मिलने देने की तमाम साजिशे हैं I

हिन्दू, सिख, ईसाई भी जरूर पढ़ें अपने लहू के रंग के विस्तार को और साफ-साफ देखने के लिए I अपने शरीर के उस जख्म को परखने के लिए जिससे अब सहानुभूति नहीं रखी गई तो न तो उसे मरहम मिल पाएगा और न ही यह शरीर ही बचेगा I

यह किताब एक यात्रा वृत्तांत हैं उस अद्भुत यात्रा की जो तुर्की से शुरू होकर सीरिया, ईरान, पाकिस्तान होते हुए हिंदुस्तान आकर खत्म हुई जिसमें सड़कों से ज्यादा इस्लाम, इतिहास, उससे नाजायज़ छेड़छाड़ एवं इंसानियत को नापा गया और समझा गया कि मजहब कैसे हिंसक तथा खुद को ही जख्म देने वाला हो सकता है, सिसायत में मिलकर यह किस कदर पूरी मानवता को ही आतंकित कर सकता है I

तुर्की के भविष्य और जीवन की पूरी रूपरेखा बदल देने वाले ‘अतातुर्क’ जिसने खलीफाओं के अस्तित्व को मिटाकर तुर्की को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में बदल दिया को इस किताब के द्वारा जानना आपके लिए जरूरी है जो कि बतलाती है कि धर्मनिरपेक्षता जैसा महान विचार भी जब निरंकुश हो जाता है, भावनाओं का कद्र करना छोड़ देता है तो अब्दुल्ला जैसे लोग कह उठते हैं कि “इंसान होना एक बात है पर मुसलमान होना अपने आप में एक खास बात है I……मुसलमान होने का मतलब है इतिहास से ऊपर होना I…..पूरी दुनिया को फिर से बनाने की जरूरत है, सब चीजों को इस्लाम की गलियों से होकर गुजरना है I”

वैसे अब्दुल्ला का यह कथन सिर्फ ‘अतातुर्क’ के निरंकुश, हिंसक धर्मनिरपेक्षता की वजह से ही नहीं है, इसके पीछे एक समुदाय को ही राष्ट्र मानने, बनाने की विध्वंसकारी सोच भी है जो जलजले की तरह सबको मिटाकर आगे बढ़ना चाहती है I

तुर्की में पले-बढ़े अब्दुल्ला का उपरोक्त कथन सिर्फ उसका पराभव नहीं है बल्कि पूरी मानव जाति का पराभव है जो हम उसे इस आंतरिक और वैश्विक जहर से नहीं बचा पाए I यह बात जितना मुस्लिम समुदाय पर लागू होती है उतना ही बाकी समुदायों पर भी I यह आवाज किसी हिन्दू के मुंह से भी उतना ही जोर से निकल सकती है, उसी आवेश में निकल सकती है I

यदि आप भारतीय हिन्दू हैं तो अब आपके लिये यह जानना किसी मुसलमान से ज्यादा जरूरी है कि एक काल्पनिक शिकायत कैसे दीमक बनकर पहले व्यक्ति, फिर समुदाय, फिर समाज, फिर राष्ट्र और अंततः पूरे विश्व के लिए खतरा बन जाती है, विशेषकर आज के संक्रमित परिप्रेक्ष्य में I यह किताब इसलिए भी है I

बंटवारा सिर्फ सीमाओं को नहीं बांटता बल्कि जिंदगी के तमाम नसों के टुकड़े कर देता है, धमनियों को जख्मी कर देता है और हिंदुस्तान का बंटवारा अब भी यह काम बख़ूबी कर रहा है, यह इस किताब के तमाम पन्नों में दर्ज है I

बंटवारा तो बंटवारा है, सीमा का हो या रिश्तों का, जख्म समंदर बन के बहने लगता है, दर्द असंख्य स्रोत ढूंढ लेता है I माता-पिता का बंटवारा भी किस तरह इंसान को टुकड़ों में बंटी लम्हों का मोहताज बना देता है, अपनी पहचान की खोज में खुद को खुद से ही डराने लगता है, भावनाओं को विक्षिप्त कर देता है यह इसी किताब की कहानी है I

इस सब के अलावा यह पिता और पुत्र के उस उलझे रिश्ते की मार्मिक दास्तान है जिसके उलझन का बीज इस रिश्ते के अस्तित्व में आने के पहले ही तब पड़ चुका था जब एक अधूरी प्रेम कहानी ने जन्म लिया और जिसके वास्तविक गुनाहगार वे लोग हैं जिन्होंने इस मुल्क के बंटवारे की जमीन तैयार की I

इस किताब को लिखने के लिए पाकिस्तानी राजनयिक सलमान तासीर और भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह का बेटा होना जरूरी था, कोई अन्य यह शायद कर नहीं पता I

पर मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि इस किताब को लिखने के लिए सबसे ज्यादा मुसलमान होना जरूरी था, हजारों सालों से वसुधैव कुटम्बकम और सर्वधर्म समभाव का संदेश देने वाले धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हिंदुस्तान का मुसलमान I

जरूर पढ़िए, क्योंकि दुनिया उतनी भी बड़ी नहीं, बहकी गर्म हवा अब उतनी भी दूर नहीं, बच जाना, बचा लेना इतना अनिवार्य इससे पहले कभी नहीं हुआ I

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